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________________ वीर-शासनकी पुण्य-वेला [ ले:-पं० सुमेरचन्द जैन, दिवाकर, बी. ए., एलएल. बी., न्यायतीर्थ शास्त्री ] जूदा जमाना भगवान् महावीरका तीर्थकहलाता जो भी विचारशील व्यक्ति अपने अंत:करणमें है, क्योंकि अभी वीरप्रभका ही शासन विचार करेगा, उमके चित्तमें स्वामी समन्तभद्रका वर्तमान है। उन भगवान् महावीर के प्रति अनुनि युक्तिवाद स्थान बना लेगा, और वह भी कह उठेगा, के कारण भव्य तथा भक्तजन उनके जन्म-दिवस, भगवन् ! 'नातस्त्वमसि नो महान्'-इस कारण वैराग्य-काल आदिके अवसर पर हर्ष प्रकाशन एवं ही आप हमारे लिए महान (Great) नहीं हैं। भक्ति-प्रदर्शन किया करते हैं । तात्विक रूपसे देवा और भी अनेक बाते हैं, जो भगवान महावीर जाय तो जब कैवल्य-प्राप्ति के पूर्व वे वास्तवमें के अतिरिक्त व्यक्तियों में हीनाधिक मात्रामें पाई महावीर पदको प्राप्त नहीं हो सके थे तब उनके जाती हैं। किन्तु एक विशेषता है जो भगवान् गर्भ, जन्म, वैराग्य-कल्याणकोंकी पूजा करना कहाँ महावीरमें ही पाई जाती है, और जिसके कारण तक अधिक युक्तिमंगत है, यह स्वयं मोचा जा- उनके अन्य गुण पुज अधिक दीतिमान हो उठने सकता है * । यह सच है कि भगवान महावीर के हैं। उनके विवेकचा भक्त श्रीसमंतभद्र कहते हैंबाल्यकाल आदिमें इतरजनोंकी अपेक्षा लोकोत्तरतास स्वमेवासि निर्दोषो युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् । थी, फिर भी वह उनके विश्ववंदनीय बननका ममर्थ अविरोधो यदिष्टं ने प्रमिन्टेन न बाध्यते ॥ कारण नहीं कही जा सकती। उन चमत्कारजनक बिल्कुल ठीक बात है । भगवान् महावीर के अनिशयोंकी ओर स्वामी ममन्तभद्र-जैसे तार्किक तत्त्व-प्रतिपादनमें तर्कशास्त्रसे असंगति नहीं पाई चूड़ामणिका चित्त प्राकर्षित नहीं हुआ। इसी कारण जानी, क्योंकि उनके द्वाग प्रमपित तत्त्व प्रत्यक्षादि वे अपने देवागमस्तोत्रमें अपने हार्दिक उद्गारोंको प्रमाणोंसे अखंडित है। इस प्रकार प्रकट कर चुके हैं कि: ___ अब हमें देखना है कि प्रभुमें 'युक्तिशास्त्रा+ देवागमनभोयान-चामरादि-विभूतयः । विरोधिवाकपना' कष प्रकट हुआ, जिससे वे मायाविष्वपि दृश्यन्ते नागस्त्वमसिनो महान् ॥ लोकोत्तर एवं भुवनत्रय-प्रपूजित हो गए। *हमाग भाव यह नहीं है कि अन्य कल्याणकोंकी पूजा न की जाय । यहाँ हमारे विवेचनका लक्ष्य इतना अंतराय आदि कोका नाश कर बैशाख शुक्ला ही है कि वास्तविक पज्यताका जैसा कारण कैवल्य के ममय उत्पन्न होता है, वैसा तथा उतना महत्वपूर्ण और * यहां भगवान महावीरका नामोल्लेख प्रकरणयुक्ति संगत निमित्त अन्य ममयों में नहीं होता । नैगम वश किया गया है । यही बात अन्य जैन तीर्थंकरोंमें नयकी दृष्टिसे अन्य कल्याणकोंमें पज्यता पाती है। भी पाई जाती है। भगवन ! देयोंका आना, श्राकाशमें गमन हे भगवन् ! वह निर्दोष तो आप ही हैं, क्योंकि होना, चमर छत्रादिकी विभूतियोंका पाया जाना तो आपकी वाणी युक्ति तथा शास्त्रके अविरुद्ध है। इन्द्र नालियों में भी पाया जाता है, इसलिए इन कारणों इस अविरुद्धताका कारण यह है कि जो बात श्रापको से श्राप हमारे लिए महान् नहीं हैं। अभिमत है वह प्रत्यक्षादिसे बाधित नहीं होती।
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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