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________________ वर्ष ३, निय ] विद्यानन्द-कृत सत्यशासनपरीक्षा न तेन प्रतिपः स्वाहादसे (दस्य) ति निश्चितम् ॥ सत्योंके स्वरूप,तथा मोक्षके सम्यक्त्व श्रादि पाठ अंगोंका ४ चाकिमतपरीक्षा- इसके पूर्वपक्षमें सबसे पहले बहुत सुन्दर विवेचन किया है। मोक्षके शून्यरूपका सुगतो यदि सर्वज्ञः कपिलो नेति का प्रमा'इस कारिकाके वर्णन करते हुए अश्वघोषकृत सौन्दरनन्द काव्य (१६ । द्वारा सर्वश पर श्राक्षेप करके अन्त में तर्क और आगमकी २८-२६ ) के ये श्लोक उद्धृत किए हैनिःसारता दिखाते हुए महाभारतका यह श्लोक उद्धत दोपो यथा निवृतिमभ्युपेतो नैवानि गति नान्तरितम् किया है दिशं न काचिद्धिविशंन काशिस्नेहपयात केवलमेतियांतिम्। तको प्रतिष्ठःतयो विमिना नासौ मुनिर्यस्य वचप्रमाणं। जिनस्तथा निर्व तिमभ्युपेतो नैवावधि गच्छति मान्तरितम् धर्मस्य तत्वं निहितं गुहाया महाजनो येन गतः सपन्था॥ विशं न काशिद्विविशं न काजिमोवण्यात् केवलमेतियांतिम् यह समस्त पूर्वपक्ष अष्टसहस्री (पृ० ३६ ) के मोक्षके उपायोंमें सिर और दाढीका मुंडाना, कषाय समान ही है। वस्त्रका धारण करना तथा ब्रह्मचर्यका पालन आदि अन्तमें अग्निहोत्रादिको बुद्धि और पुरुषार्थशून्य उल्लेखित है। ब्राह्मणों की श्राजीविकाका साधन कहकर विषय-भोगोंको उत्तरपक्ष अष्टसहस्रीको शैलीसे ही लिखा गया है। छोड़ने वालोंकी निपट मूर्खता बताते हुए लिखा है कि- इसमें लधीयस्त्रयकी 'यथैकं मित्र देशार्यान्' कारिका "यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् नास्ति मृत्योरगोचरः। (श्लोक न०३७) उदधृत की है। अन्तमें खंडन करते करते खोजकर बौद्धोंको लिखा है कि-ये हेयोपादेय भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥ विवेकसे रहित होकर केवल अनापशनाप चिल्लाते हैंभनिहोत्रं त्रयी वेदाः त्रिदण्डं भस्मगुगठनम् । "तथा - सौगतो हेयोपादेयरहितमहीका केवलं बुद्धिपौरुषहीनानां जीविकेति बृहस्पतिः ॥” इत्यादि विक्रोशति इत्युपेक्षामहति" यही वाक्य अष्टसह सीमें उत्तरपक्षमें यशस्तिलक उत्तरार्ध (१० २५७ ) लिम्वा है। बात यह है कि धर्मकीर्तिने दिगम्बरों के लिये तथा प्रमयत्नमाला ( ४१८) म उद्यत श्रीक श्रादि शब्दोंका प्रयोग करते हुए प्रमाणवार्तिक तदहर्जस्तनेहातो रसोदृष्टेर्भवस्मृतेः। (३॥ १८२) में लिखा है कि-'एतेनैव बदहीका पकिभूतानन्वयनात् सिद्धः प्रकृतिशः सनातनः । शिवरनीलमाकुलम् । प्रजपन्ति ।........."पाक पंक्ति यह कारिका तथा समन्तभद्र के युक्त्यनुशामनकी में धर्मकीर्ति के शब्द उन्हींको धन्यवादके साथ वापिस 'मांगवद्भुतसमागमे शः, यह कारिका (श्लोक नं०३५ किए गए हैं । इसमें समन्तभद्रकी श्रासमीमांसा तथा प्रमाणरूपमें पेश कीगई है । अन्तमें उपसंहार करते युक्त्यनुशासनके अनेकों पद्य प्रमाणरूपसे उद्धृत कर हुए वैसा ही श्लोक लिखा है खंडनको अधिकसे अधिक मुगठित किया है। न चार्वाकमतं सत्यं दृष्टादृष्टेटबापतः । स्कंधकी सिद्धि में सर्वार्थसिद्धि में उद्धृत 'णिस्स न च तेन प्रतिपः स्याद्वादश्वे (दस्य)ति निश्चितम् ॥ णिवेण दुराधिएण' यह गाथा भी उद्धृत की है। ५ ताथागतमतपरीक्षा-इसके पूर्वपक्षमें रूपादि अन्तमें सुगतमतको दृष्टेष्टबाधित बताकर सुगतमतपांच स्कंधोंके लक्षण, दुःखसमुदाय आदि चार आर्य परीक्षा समाप्त की है।
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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