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[भाद्रपद, बीर निर्वाण सं. २०१९
मेव हि सत्यशासनस्य सत्यत्वं नाम यत् दृष्टेष्टाविरुदत्वम्' 'पषा पत्राविसंवादः तथा तत्र प्रमाणता' यह कारिकांश अर्थात् शासनोंकी सत्यताका अर्थ है, उनका प्रत्यक्ष तथा अकलंकदेवका नाम निर्देश करके ही उद्धृत किया है। अनुमानसे बाधित नहीं होना । प्राचार्यमहोदयने सत्यता- अष्ट सहस्री (पृ० १५६ ) का 'महि करोति कुम्म की इसी सीधी-सादी कसौटी पर क्रमशः सभी दर्शनोंको कुम्भकारो दण्डादिना, मुक्ते पाणिनौवनमित्यादिकसा है। उन्होंने दर्शनोंकी परीक्षा करते समय पहले क्रियाकारकभेदप्रत्यक्ष प्रान्तं ..' इत्यादि अंश ज्योंका सभी दर्शनोंका प्रामाणिक पूर्वपक्ष रखा है । फिर त्यों ग्रन्थमें शामिल है । अन्तमें ब्रह्माद्वैतपरीक्षाका पहले उसे प्रत्यक्ष-बाधित बता कर अन्तमें अनुमानसे उपसंहार करते हुए लिखा है किबाधित सिड करके उस उस दर्शनकी परीक्षा समाप्त की ब्रह्माविद्याप्रमापायात् सर्ववेदान्तिना(ना) वचः । है। इन परीक्षाओंका कुछ परिचय निम्न प्रकार है:- भवेत्प्रलापमानत्वाचावदे()विपरिचताम् ॥
१ ब्रह्माद्वैतपरीक्षा-इसके पूर्वपक्षमें बृहादारण्य- ब्रह्माद्वैतं मतं सत्यं न स्टेष्टविरोधतः । कोपनिषत् (२।३।५) 'भारमावारेऽयं दृष्टव्यः', ब्रह्मसूत्र न च तेन प्रतिपः स्याद्वादस्पेति निश्चितम् ॥ (१११२)का 'जन्माणस्य यता', गीता (१५। १ ) का २ शब्दादेतपरी-इसका भाग प्रथमें नहीं है। 'अवमूलमधः शाखमरवत्थं प्राहुरूपयम्' इत्यादि अनेकों
विज्ञानाद्वैतपरी-इसका निरूपण भी प्राचीन ग्रंथोंके अवतरण दिए गए हैं। उत्तर पक्षमें
श्रष्टसहस्रीके सातवें परिच्छेदसं बहुत कुछ मिलता जुलता समन्तभद्रकी प्राप्तमीमांसाके दूसरे अध्यायकी कान्त- है। इममें श्रष्टशती (अष्टसहस्री पृ०२३४) में उदधृत परेऽपि इत्यादि ५-६ कारिकाएँ उद्धृत है । अकलङ्क- 'यतया या घटामुपैति तदहं दृष्ट्वापि न श्राधे' यह देवके न्यायविनिश्चयकी "इन्द्रजालादिषु प्रान्ति" यह
वाक्य उद्धत है। कारिका (नं० ५१), कुमारिलके मीमांसा-श्लोकवार्तिक
विज्ञानाद्वैतका पूर्वपक्ष समाप्त करते हुए ये श्लोक (पृ.१६८) की 'अस्तिमालोचनाशानम्' यह कारिका
का लिखे हैं, जो किसी जैनतर्कप्रथमें उद्धृत नहीं हैंभी प्रमाणरूपमें उद्धृत है। अष्टशती ( का० २७) का
नावनिर्न सजिलं न पायको न मा गगनं न चापरम् । 'भातशब्दः स्वाभिधेयप्रस्थनीकारमार्थापेकः पम्पूर्वा
विश्वनाटकविलाससारिणी संविध(द)व पतितोविजृम्भयति खबखपरत्वापहेत्यभिधानवत्' यह प्रसिद्ध अनुमान भी
" एकसंविधि(दि)विभाति भेदधी:नीलपीतसुखदुःखरूपिणी। अद्वैतके खण्डनमें उपस्थित किया गया है।
निम्ननामीयमुञ्चतस्तनी नीति चित्रफलकेसमे इति ।। अविद्याको अनिवचनीय कह करके भी उसके स्व
उत्तरपक्षमें समन्तभद्र के युक्तथानुशासनकी 'अनर्षिरूपका निरूपण करनेवाले अद्वैतवादीको स्ववचनविरोध
कासाधनसाध्यधीश्वेद" इत्यादि कारिका प्रामणरूपमें दूषण देते हुए उसके अनेक दृष्टान्त दिए हैं। यथा- उद्धृत कीगई है । अन्तमें उपसहार करते हुएलिखा हैपावजीवमहं मौनी प्रमचारी च मत्पिता।
प्रमाणाभावतः सर्व विज्ञानातिनां वचः । माता मम मवेदण्या स्मराभोऽनुपमो भवान् । भवेत्प्रलापमात्रत्वाचावयं विपबिताम् ॥
अकलंक देवके सिद्धिविनिश्चय (पृ० ६५) का ज्ञानातं न सत्यं स्याद् दृष्टेष्टाभ्यां विरोभतः।