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३, किरण
विद्यानन्ध-कृत सत्वशासनपरीषा
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देवधर्मपरीक्षा-जैसे तर्कशैलीके तात्विक ग्रन्थ लिखे होनी है । ब्रह्माद्वैत श्रादि प्रकरणों में बृहदारण्यक भाष्यहै। 'सत्यशासनपरीक्षा का परीक्षान्त नाम भी अपनी वार्निक ( सम्बन्धवार्तिक श्लोक १७५-८१ ) श्रादिके विद्यानन्द-कर्तृकताकी ओर संकेत कर ही रहा है। प्रमाश्चिावदिष्ट चेचनु दोषो महानवम्' इत्यादि वे ही
(२) जिस प्रकार प्रमाणपरीक्षा' के मंगलश्लोक श्लोक इसमें उद्धत किए गए है जो कि अष्टसहसी में 'विद्यानन्दा जिनेश्वराः' पद जिनेन्द्र के केवलज्ञान (पृ० १६२ ) में पाए जाने है। समवायके खंडनमें
और अनन्तसुखको तो विशेषण बन कर सूचित करता प्राप्तपरीक्षाकी शैली शन्दतः तथा अर्थतः पूरी छाप ही है तथा साथ ही साथ ग्रंथकर्ताके नामका भी स्पष्ट मारती है। इन सब विद्यानन्दके अपने ही ग्रंथोंका इस निर्देश कर रहा है उसी प्रकार सत्यशामन-परीक्षाके तरहका तादात्म्य भी 'सत्यशासनपरीबा' के विद्यानन्द मंगलश्लोकका 'विद्यानन्दाधिपः' पद भी उक्त दोनों की कृति होनेमें परा परा साधक होता है । कार्योंको कर रहा है । जिस प्रकार मंगलश्लोकके (४) विद्यानन्दके ही अष्टसहस्री तथा प्रमाणपरीक्षा अनन्तर 'पथ प्रमाणपरीक्षा' लिखकर प्रमाणपरीक्षा श्रादि प्रथोमें तत्वोपप्लवकी समीक्षा बादको देखी जाती प्रारम्भ होती है ठीक उसी प्रकार मंगलश्लोकके बाद है। इसमें भी तत्वोपप्लवकी परीक्षा बादको करनेकी 'प्रथ सत्पशासनपरीक्षा की शुरूआत होती है । यद्यपि प्रतिज्ञा कीगई है। 'अर्थ' शब्दसे ग्रन्थ प्रारम्भ करनेको परम्परा श्रापस्तम्ब
ग्रन्थका बिम्ब-प्रतिबिम्ब भावश्रौतसूत्र, पातञ्जल-महाभाष्य तथा ब्रह्मसूत्र आदि ग्रन्थोंमें
सत्यशासनपरीक्षा के मूल प्राधार स्वयं विद्यानन्दके पाई जाती है परन्तु मानश्लोकके अनन्तर 'अर्थ' शब्द
ही अष्टसहस्त्री तथा प्राप्तपरीक्षा ग्रंथ है । जिनमें से ग्रंथ प्रारम्भ करना विद्यानन्दके ग्रंथों में देखा जाता है,
श्रष्टसहस्रीका तो पद पद पर सादृश्य है । और यही शैली श्रा० हेमचन्द्र आदिने भी प्रमाणमीमांमा,
का भी समवायके खण्डनमें पूरा पूरा सादृश्य है। इसका काव्यानुशासन श्रादिमें अपनाई हैं। इस तरह विद्यानन्द
प्रतिबिम्ब प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्यायकुमुदचन्द्र,प्रमेयरत्नकर्तृकरूपसे सुनिश्चित प्रमाणपरीक्षाकी शैलीसे इसका
माला श्रादि ग्रन्थों पर पूरा पूरा पड़ा है। इन ग्रंथोंमें इस प्रारम्भ श्रादि देखनेसे ज्ञात होता है कि यह कृति भी
के अनेकों वास्य जैसे के तैसे शामिल कर लिए गए हैं। विद्यानन्दकी है।
(३)उपलब्ध ग्रन्थका अान्तरिक निरीक्षण करनेके बाद विषयपरिचयइसमें कोई भी ऐसा अवतरण-वाक्य नहीं मिलता जिसका सबसे पहले परीक्षाका लक्षण करते हुए लिखा है कर्ता निश्चितरूपसे विद्यानन्दका उत्तरकालवर्ती हो। इसकी कि "इयमेव परीचयो यस्येदमुपपद्यते न वेति विचार" शैली तथा विषयनिरूपण की पद्धति बिलकुल अष्टसहस्रीसे अर्थात् 'इस वस्तु में यह धर्म बन सकता है या नहीं, इस मिलती है। कहीं कहीं तो इतना शब्द-साम्य है कि पढ़ते विचारका नाम ही परीक्षा है। पढ़ते यह भ्रम होने लगता है कि 'अष्टसहस्री पढ़ रहे हैं सत्यशासनपरीक्षाका तात्पर्य बताया है-'शासनोंके या सत्यशासनपरीक्षा ? इस तरह बहुतसे स्थलोंमें तो सत्यत्वकी परीक्षा-कौन शासन सत्य है तथा कौन असत्य' यह अष्टसहस्त्रीके मध्यम संस्करणके समान ही प्रतीत सत्यका परिष्कृत लक्षण करते हुए लिखा है कि-"इद