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________________ महिंसाका परिवार चरम सीमा तक पहुंचता है। इसीलिये चारित्रके मूलमें अतिषादी सममाव रही सही अहिंसाको चौपट न भ. महावीरने सम्यग्यशनके होने पर जोर दिया है । वि- कर जाय इसलिए बमस्पत्याहार और माँसामरके वेकहीन चारित्रको प्रचारित्र ही नहीं मिथ्याचारित्र तक बीचमें जो खाई है उसको अधिकसे अधिक बड़ी कहा है। श्री कालेलकर साहिबके लेखमें अहिंसाका बनानेकी जरूरत है। ऐमा ही अतिवादीरूप है जिसकी ऐसी प्रतिक्रिया होगी मौसमक्षीमें दया मानना उससे प्रेम करना आदि कि उससे रही सही अहिंसा भी बह जायगी। एक बात है पर मांसभक्षण और शाकाहारका भेद. मुला भगवती अहिंसाका साधक वृक्षोंकी दया भी देना दूसरी बात है। हम दैशिक परिस्थितिका विचार रक्खेगा और जहाँ जीवन निर्वाहका माँसाहार सिवाय करके, उनकी संस्कृतिका विचार करके या सर्वसाधारण दूसरा साधन न होगा वहाँ माँसाहारको भी क्षन्तव्य का व्यापक दोष समझ कर माँसाहारियोंको दम्य मान लेगा, इतना होने पर भी वह बनस्पति श्राहार माने, परन्तु शाकाहार माँसाहारके विषयमें अपनी और माँसाहारकी विभाजक रेखाको नष्ट न करेगा, न भावनाओंको अमिन न बनायें। इसका खयाल रखें उसकी चौड़ाई कम करेगा । हृदयके समभावको निर्वि- कि बनस्पत्याहारमें माँसाहारका संकल्प न आने पावे । वेक न बनायगा। इसके लिए इन बातोंका विचार जरूरी है। जैनधर्मने हिंसा अहिंसाका बहुत ही गम्भीर विवे- १-जीवन-निर्वाह के लिए हिंसा तो अनिवार्य चन किया है। जहाँ उसने जड़ोपम प्राणियोंके सुख है परन्तु विश्वसुखवर्धनका विचार करते हुए अधिक दुःखका खयाल रक्खा है वहाँ अहिंसाको व्यवहार्य चैतन्यवालेका विचार हमें पहिले करना चाहिए । बनबनाने के लिये हिसाको तरतमताका भी खयाल रक्खा स्पति, कीटपतग, पशुपक्षी, मनुष्य इन चारोकी हिंसा है इसलिये प्राणियोंकी गिनती पर ध्यान न देकर उनकी को बराबर न मानना चाहिये । चैतन्यमात्रा पर ध्यान दिया है। इसलिये बनस्पति, --बनस्पति आदि स्थावर तथा पशुपक्षी आदि द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पचेन्द्रिय, पशु आदिकी उसके वधका प्रकार एकसा नहीं है। अनेक प्रकारका हिसामें संख्यगुणा असख्यगुणा अनन्तगुणा अन्तर बत- अंगच्छेद पशुत्रोंको नुकसान पहुंचाता है, पर बनलाया है। अगर इस प्रकारका विवेक न रक्खा जाय स्पतियोंको नुकसान नहीं पहुँचाता। तो अहिसा अव्यवहार्य होजाय। वृक्षोंके फल अगर हम न तोड़े तो वृष उन्हें ___ जैनधर्मकी इस अनेकान्त दृष्टिको भुला कर स्वयं फेंक देंगे । और उनके स्थान पर दूसरे फलफूल जब हम भावुकताके अतिवादसे बकरेकी हिंसा पत्र पैदा होंगे । पर बकरेमें यह बात नहीं है कि अगर और माड़ोंकी हिंसाको एक हो कोटिमें लानेकी हम उसका सिर न काटेंगे तो वह स्वयं पुराना सिर कोशिश करेंगे, बकरेकी हिंसाकी घृणा वृक्ष- फेंक कर वसन्तमें नया सिर लगा लेगा। हिसामें लागू करना चाहेंगे तो इसका परिणाम पक्षकी शाखा काटने पर उसी जगह दूसरी शाखा यह होगा कि वृक्ष हिंसाकी अघृणा या उपेक्षा उगती है, बहुतसी जगह तो शाखा प्रथाखा न काटने बकरेकी बिसामें प्रा उतरेगी । इस प्रकारका पर उनका विकास ही रुक जाता है। एकबार सेक
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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