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अनेकान्त
[वैसाख, पीरनिगाव सं०१६
गुलाबका झाड़ लाया उसे पानी तो अच्छा दिया उसमें तैयार करलेंगे पर बेचारे गाँव वालोंकी तो वृक्षोंकी नये नये पत्ते भी पाये पर कटिंग न किया, धीरे धीरे हड्डियाँ जलाये बिना गुजर ही नहीं। इस प्रकार प्रतिउसके पत्ते काले पड़ गये और झाड़ उखड़ गया । एक वादी अहिसा भाव अगर बेचारे गरीब लोगोंके मनमें जानकारसे पूछने पर मालम हुआ कि उसका कटिंग घुस जाय और उसके अनुसार आत्महत्या करनेको करना जरूरी था। तबसे मैं बराबर कटिंग करता हूँ। अगर वे अपनेको तैयार न पायें, अहिंसाको अव्यवहाय कठिगके बाद ही उसमें बाढ़ होती है फूल आते हैं। समझ बैठे, तो शताब्दियोंमें जो थोड़ा बहुत विकास हो बकरको टांग काटना ऐसा जरूरी नहीं है, न टांग पाया है यह ध्वस्त हो जाय । घर घरमें शाक और काटनेसे उसमें बाढ़ पाती है । इसलिये अब मैं वृक्षोंके मांम सब एकाकार हो जाय । फलों पत्रों आदिको गायके दूधकी तरह ही मानता हूँ। हृदयके ममभावको खूब बढ़ाइये, पर समभावके शाखामोंके कटिंगको एक तरहका अपरेशन मानता हूँ। नाम पर हमारे भाव ऐसे अतिवादी न हो जॉय कि
और खास कर गुलाबके कटिंगको तो इमी तरह करना कौड़ियाँ गिननेमें हम मुहरें लुटा दें और दोई दीनमे हूँ जैसे छोटे बच्चेके बाल बनवा रहा होऊँ। बकरेकी जाय । अगर कभी भावुकताके उफानमे ऐसे भाव हो भी टांग तोड़ने सरीखी कल्पना मुझे नहीं होती। जाँय तो उन्हे अात्मनेपद ही रक्खे। दुनियाके सामने ___ जंगलवालोंसे मालूम हुआ कि सागौन श्रादिके रखकर उन्हे परस्मैपद बनाना और फिर भी आत्मनेपद माड़ काटने पर तीन चार साल में फिर वैसी ही शाखाएँ की दुहाई देना चिल्ला चिल्लाकर अपने वर्तमान मौनकी तैयार हो जाती है अन्यथा पुराने अंग ही जरठ होते घोषणा करना है। रहते हैं । पशु पक्षियोंके अंग कट जाने पर वे इस प्रकार अन्तमे यही कहना है कि जैनधर्मका अहिमावाद दूने उत्साहस नहीं बढ़ते।
बहुत सूक्ष्म होकर भी वह निरतिवाद है, व्यवहार्य है, मेरा मतलब यह नहीं है कि बनस्पतियों तक हमारा उममें योग्यायोग्य विवेक है वह प्राणियोंके चैतन्यकी दयाभाव न पहुँचे, मतलब इतना ही है कि हम पशु- तरतमताके अनुमार हिंमा अहिंमाका विचार करता है वधसे उसकी समानता बताने न लग जाय । अगर हम और मांसाहार शाकाहारकी विभाजक रेखाको काफी यह सोचनं लगें कि घरके झाड़ोंका काटना तो ठीक, स्पष्ट रखता है। शाकाहारमें मामाहारकी कल्पना भी पर जो बेचारे जंगलमें उगे हैं उनका क्या अपराध ? नहीं होने देता। यह अहिंमाका विवेकपर्ण सच्चा रूप है। उनके लिये हमने क्या किया है ? इस प्रकार हम जंगल जिन पत्रोंने श्री कालेलकर साहिबके भावुकता पर्ण से लकड़ी लेना बन्द करदें तो शहरोंके महलोंकी बात विचार प्रगट किये हैं उनका कर्तव्य है कि वे उनका तो दर, वे तो शायद लोहा और कांक्रोटके बल पर बन दुसरा पहल, जो कि विवेक तथा व्यावहारिकता पर भी जाय जिनमें वृक्षोंकी हड्डियाँ दिखाई न दें, पर गांवों अवलम्बित है अवश्य प्रगट करें। अन्यथा इस प्रकार की झोपड़ियाँ मुश्किल हो जायगी। बेचारे ग्रामीण अहिंसाका अधरा और प्रतिवादी विवेचन घोर हिंसाका लोहा चूना सिमिट कहाँसे लायेंगे। शहर वाले तो उत्तेजक होगा। विजलीका बटन दबाकर प्रासुक और शुद्ध भोजन
-सत्य सन्देशसे