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________________ वर्ग, जिरवा ] ...धर्मका मुख दुःखमें बुगा है। धर्म-मार्गको आविष्कारक हुई है। कोई युग ऐसा भगवान् द्वारा बतलाई हुई द्वादश भावनाओंमें नहीं, कोई देश ऐसा नहीं जहाँ इस प्रौढ अनुभूति इस अनुभूतिका आलोक होता है। का उदय न हुआ हो और इसके साथ साथ जीवन यों तो यह अनुभूति समस्त धर्म-मार्गोंकी के अलौकिक आदर्श और तत्माप्ति के लिये धम- आधार है; परन्तु निवृत्ति परक दर्शनोंकी, श्रमणमार्गका जन्म न हुआ हो । वैदिक ऋषियोंकी यह संस्कृतिकी तो यह प्राण है। इसीलिये औपनिषदिक अनुभूति वैदिक साहित्योक्त यम, मृत्यु व काल संस्कृति, वेदान्त, बौद्ध और जैनदर्शनोंको समझने विवरणमें छुपी है। असुर लोगोंकी यह अनुभूति के लिये इसका महत्व अनुभव करना अत्यन्त प्रचण्ड भीषण रुद्र, और नाग सभ्यताके रूपमें . आवश्यक है। हम तक पहुँची है । लिंगायत लोगोंमें यह रुद्रकी पोरन मूर्ति और शिवके, ताण्डव नृत्यमें अङ्कित है ।। और बंगालदेशक तान्त्रिक लोगोंमें काली कराली ____ मनुष्य-जीवनमें चाहे वह मभ्य हो, या असचण्डी दुर्गाके चित्रमे चित्रित है । औपनिषदिक भ्य, धनी हो या निर्धन, पण्डित हो या मूढ, कालमें यही अनुभूति "ब्रह्म सत्य है और नाम-रूप पुरुष हो या स्त्री, यह अनुभूति जरूर किसी समय कर्मात्मक जगत असत्" है इस सत्यासत्यवादमें आती है और उसके उज्ज्वल लोकको भयानक बसी है। । यह अनुभूति आधुनिक वेदान्तदशनके भावोंसे भर देती है। उस पातक में वह सोचता मायावाद, तुच्छवादमें प्रकट है। । 'महाभारत' में यही अनुमति मेधावी ब्राह्मण पुत्रके विचारों में "मैं कौन हूँ ? क्या मैं वास्तवमें निरर्थक हैं ? गर्मित है । बौद्ध कालीन भारतमें बुद्ध भगवान पराधीन और निस्सहाय हूँ ? क्या मेरा यह ही द्वारा बतलाये हुये चार मार्य सत्योंमें * और वीर अन्तिम तथ्य है कि मैं मंगल-कामना करते हुये भी -- दुःखी रहूँ, आशा रखते हुए भी भाशाहीन बनें, * A. C. Das–Rigvedic Culture 1925 p. 396. जीवन चाहते हुए भी मृत्युमें मिल जाऊँ ? यदि अथर्ववे11 . वेद...10. R. G. Bhandarker Vausnavesin & Saurana दुःख ही मेरा स्वभाव है तो सुखकी कामना क्यों ? vesin 1928 pages 145-151... यदि यह जीवन ही जीवन है तो भविष्यको आशा $ R. Chanda The Indo Aryan Races 1916 क्यों ? यदि मृत्यु हो मेरा भन्न है तो अमृतकी pages 136-138.- ". भावना क्यों ? क्या यह कामना, आशा, भावना, र उप. .. मानो एक सम्नेतत् सब भ्रम है, मिथ्या है, मेरा इनसे कोई सम्बन्ध अपम्" कांचना-सा रोकी .. .. नहीं? क्या यह लोकं ही मेरा लोक है, जहाँ मामा-गति प्रो वा 1 . इच्छाओं का खून है, पुरुषार्थकी विफलता है ? * रोचविधान-महाति गा । चरायवन मध्याव ।। चंयुनिसार १५-२१. '.. श्रीमान्लामा हारकानुप्रेश।
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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