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________________ धर्मका मूल दुःखमें बुपा है। [0-बी बबभगवान जैन बी.ए. एसएल. बी. वकीय जीवनकी दो मूल अनुभूति तृष्णा पूर्तिका स्थान नहीं, यह निर्दयी मरीचिका है। यह दूर दूर बने वाला है । यह नितान्त जोराव-कालमें जीवन ज्याल, अदुत, विस्मय अप्राय है । यह झूठी श्राशाके पाशोंसे वाग्ध बान्ध । कारी लीलामय दिखाई देता है और जगत । कर जीवनको मृत्युके घाट उतारता रहता है। भानन्दकी रङ्गभूमि । यहाँकी हरएक चीज सुन्दर, सौम्य और आकर्षक प्रतीत होती है। जी चाहता ___ यह जगत मृत्युसे व्याप्त है । सब ओर है कि यहाँ हिलमिल कर बैठे, हँस-हँस कर खेलें, क्रन्दन और चीत्कार है। लोक निरन्तर कालकण्ठ में उतरा चला जा रहा है। भमण्डल अस्थिपञ्जर रोष तोषसे लड़ें और छलक छलक कर उड़ जायें। से ढका है। पर, रुएडमुण्ड पहिने हुए कालका __ परन्तु ज्यों ज्यों जीवनको गति प्रौढताकी भोर अट्टहास उसी तरह बना है। यहाँ जीवन नितान्त बढ़ती है, यह रङ्गभूमि और उसको ललाम लीला अशरण है ।। डरावनी और घिनावनी मूर्ति धारण करती चली ___ यहाँ कोई चीज स्थायी नहीं, जो आज है वह जाती है। पद पद पर भान होने लगता है कल नहीं, अंकुर उदय होता है, बढ़ता है, पत्र जीवन दुःखमय है, जगत निष्ठुर और क्रूर है, पुष्पसे सजता है, हँसता है, ऊपर को लखाता है; यहाँ मनका चाहा कुछ भी नहीं, सर्व ओर परा परन्तु अन्तमें धराशायी हो जाता है । यहाँ भोगमें धीनता है, बहुत परिश्रम करने पर भी इष्टको प्राप्त रोग बसा है, यौवनमें जरा रहती है, शरीरमें नहीं और बहुत रोक थाम करने पर भी अनिष्टकी मृत्युका वास है। यहाँकी सब ही वस्तुएँ भयसे उपस्थिति अनिवार्य है। ढकी हैं। यह जगत निस्सार है, केवल तृष्णाका हुंकार है। उसीसे उन्मत्त हुघा जीवन अगणित बाधा, प्रौढ अनुभूति और धर्म मार्गअमित वेदना, असंख्यात भाघात-प्रघात सहता यह है प्रौढ अनुभूति, जो मानव समाजमें हुआ संसार-बनमे घूम रहा है, वरना यहाँ सन्तुष्टि- विवं सर्व मत्युना असं, सर्व मृत्युनामिपा का,सुख शान्तिका कहीं पता नहीं । वही अपूर्णता, बही तृष्णा,वही वेदना हरदम बनी है। यह लोक - हादशानुप्रे पम्मपद २०." * ममिमनिकाप-1 सूत महरि-वैराम्पयतका
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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