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________________ धवलादि-श्रुत-परिचय [सम्पादकीय पवल-अपपपलके रचयिता इस प्रशस्तिकी रली, ज्यौ और ५वीं, ऐसी तीन गाथा श्रोसे धीरसेनाचार्यका कुछ परिचय मिलता है। पहली गाथासे मालूम होता है कि एखाचार्य सिद्धान्त-विषयमें गत विशेषाङ्कमें यह बतलाया जा चुका है कि वीरसेन के शिक्षा गुरु ये-इस सिद्धान्तशास्त्र (षट्खण्डा- धवल-जयधवल मूल प्रन्थ न होकर संस्कृत गम) का विशेष बोध उन्हें उन्होंके प्रसादसे प्राप्त हुना प्राकृत-भाषा-मिश्रित टीकाग्रन्थ है, परन्तु अपने अपने था, और इमलिये इस विषयका उल्लेख करते हुए मूल ग्रन्थोंको साथमें लिये हुए है। साथ ही, यह भी बत वीरसेनाचार्यने उन एलाचार्य के अपने पर प्रसन्न लाया जा चुका है कि वे मूल ग्रन्थ कौन है, किस भाषा होनेकी भावना की है-प्रकारान्तरसे यह सूचित किया के हैं, कितने कितने परिमाणको लिए हुए हैं और किस है कि जिन श्रीएलाचार्यसे सिद्धान्त-विषयक शन किस प्राचार्यके द्वारा निर्मित हुए हैं अथवा उनके अव को प्राप्त करके मैं उनका ऋणी हुआ था, उनके उस तारकी क्या कुछ कथा इन टीका-ग्रन्थों में वर्णित है, ऋणको श्राज मैं न्याज (मद्र) सहित चुका रहा हूँ, यह इत्यादि । आज यह बताया जाता है कि धवलके रच देखकर वे मुझ पर प्रमन्न होंगे। चौथी और पांचवी यिता वीरसेनाचार्य और जयधवल के रचयिता बीरसेन दो गाथाओंम यह बतलाया है कि जिन वीरसेन मुनि सथा जिनसेनाचार्य कौन थे, किस मुनि-परम्परा में भट्टारकने यह टीका (धवला) लिखी है वे प्राचार्य उत्पन्न हुए थे, टीकोपयुक्त सिद्धान्त विषयक ज्ञान उन्हें आर्यनन्दीके शिष्य तथा चन्द्रसेनके प्रशिष्य थे और कहासे प्राप्त हुआ था और उनका दूसरा भी क्या कुछ 'पंचस्तप' नामके मुनिबंश • में उत्पन्न हुए थे-उस परिचय इन टीकाग्रन्थों परसे उपलब्ध होता है। भवनाम अन्यत्र-'कर्म' नामके भनुयोगद्वारमेंभीवीरसेनाचार्य वैश्यावृत्यके मेवोंका वर्णन मते हुए, मुनिसके । पंच धवलके अन्तमें एक प्रशस्ति लगी हुई है, जो स्तूप, २ गुहापासी, पशाबमूज, " अशोकवार, ५ खंडनवगाथामिका है और जिसके रचयिता स्वयं श्री वीर- केसर, ऐसे पंच भेव किये हैं। पथासेनाचार्य जान पड़ते हैं, क्योंकि उसमें अन्तमंगलके "तत्थ कुल पंचविह पंचथहकुलं, गुहावासीफुलं तौर पर मंगलाचरण करते हुए 'मए' (मया) और 'महु' साबमूलकुलं ममोगवादकुलं खंडकंसरकुलचेदि।" (मम) जैसे पदोंका प्रयोग किया गया है और ग्रन्थ- 'पंचस्तूप'नामक मुनिवंशके मुनियों का मूलनिवाससमासिके ठीक समयका बहुत सूक्ष्मरूपसे- उस वक्तकी स्थान पंचस्तूपों के पास था, ऐमा इन्वानम्बि शुतावतारके महस्थिति तकको स्पष्ट बतलाते हुए-उल्लेख किया है। 'पंचस्तूनिवासादुपागता येऽनगारिणः" जैसे
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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