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अनेकान्त
[वर्ष ३ किरण १
इसही कारण तीर्थकर भगवानकी भक्ति भी एक मात्र तीर्थकरकी प्रतिमा है। किसी भी तीर्थकरकी हो परम उनकी वीतराग अवस्थाकी ही करनी जरूरी बताई जाती वीतराग रूप प्रतिमा ज़रूर होनी चाहिये, जिसके दर्शनसे है, जिससे वीतरागताका भाव पैदा हो, न कि उनकी वीतरागताका भाव हमारे हृदयमें भी पैदा होने लग गृहस्थावस्थाकी, जिससे राग-भाव पैदा होनेकी ही जाय । रही पूजने या भक्ति स्तुति करनेकी बात, वह सम्भावना हो सकती है। ऐसी दशामें सवाल यह पैदा बेशक अलग अलग तीर्थकरकी अलग अलग की जाती होता है कि वीतराग-प्रतिमा, जिसके घर-घर रखनेकी है, परन्तु जिस तीर्थकरकी प्रतिमा मन्दिरमें नहीं होती है, जरूरत है; वह क्या इस प्रकार प्रतिष्ठित होनी ज़रूरी है, उनकी भी पूजा बंदना और भक्ति-स्तुति की जाती है। जिस प्रकार पंचकल्याणकोंकी लीला करके आजकल यह भक्ति स्तुति प्रतिमाकी तो की ही नहीं जाती है और प्रतिष्ठित समझी जाती है, और प्रतिष्ठा होनेके बाद न मन्दिरमें विराजमान प्रतिमाको वास्तविकरूपमें तीर्थंकर शिल्पी द्वारा उनपर प्रतिष्ठित किया जाना अंकित भगवान ही माना जाता है । मूर्तिसे तो मूर्तिका ही काम कराया जाता है, अथवा बिना इस प्रकारकी लीलाके लेनेकी आज्ञा है अर्थात् यह ही समझने और माननेकी बैंस ही उनको विराजमान कर उनके दर्शनसे वीतरागता- ज़रूरत है कि यह तीर्थकरभगवान्की परम वीतरागरूप फी शिक्षा लेते रहनेकी ही जरूरत है, जैसा कि प्राचीन अवस्थाकी मूर्ति है तब प्रत्येक तीर्य करकी अलग २ कालके जैनी करते थे । क्योंकि प्राचीनकालकी जो प्रतिमा रखने और उनपर अलगर चिन्ह बनानेकी तो जैनप्रतिमाएँ धरती से निकलती हैं वे चौथे कालकी कुछ भी ज़रूरत नहीं है यहाँ यदि इन मूर्तियाँको ही हो या पंचम कालकी; उनपर प्रतिष्ठा होना अंकित नहीं माक्षात् भगवान मानकर पूजनेकी आशा होती तब तो होता है जैसा कि श्रा नकलकी मूर्तियों पर होता है । मूर्ती बेशक अलग २ तीर्थंकरकी अलगर मूर्ति बनानेको भी निर्माण कराने वाले शिल्पशास्त्रोंमें प्रत्येक तीर्थकरकी जरूरत होती; परन्तु अब तो परम वीतरागताकी मूर्तिके अलग अलग शक्ल नहीं बताई गई है, जिससे शिल्प- दर्शन करने के वास्ते एक ही मूर्ति काफी है, जो सबही कार पहलेसे ही प्रत्येक तीर्थकरकी अलग अलग मूर्ति तीर्थकरोकी मूर्ति समझी जासकती है। इसही कारण बनावें । वह तो सबही मूर्तियाँ एक समान बनाता है कोई भी चिन्द बनाने की जरूरत मालूम नहीं होती है।
में महीना भाव मानेका व्याल अब भी जिन मंदिरोंमें सबही तीर्थंकरोंके चिन्होंवाली रग्वता है। फिर चाहे जिस पर चाहे जिस तीर्थकरका मूर्तियाँ नहीं होती हैं। एक, दो या तीन ही मूर्तियाँ चिन्ह बना देता है । तब यदि यह चिन्हन बनाया जावे होती हैं, उन मंदिरोंमें भी तो चौबीसों तीर्थकरोंकी पूजातो वह मूर्ति सबही तीर्थंकरोंकी, उनका परम वीतराग- भक्ति होती है अर्थात् वीतरागताकी शिक्षा तो उन बिरूप अवस्थाकी समझी जा सकती है,ऐसी ही वे प्राचीन राजमान प्रतिमाओंसे लेली जाती है और पजाभक्ति मूर्तियाँ समझी जाती थीं जो धरतीके नीचेसे निकलती सबकी अपने मनमें उनका स्मरण करके करनी जाती है और जिन पर प्रायः कोई चिन्ह बना हुमा नहीं होता है। यहाँ पर यह कहा जासकता है कि जिन तीर्थंकरोंहै। वीतरागताका भाव पैदा करनेके वास्ते तो हमको की प्रतिमा नहीं होती है उनकी स्थापना पक्षकों द्वारा इस बातकी कुछ भी ज़रूरत नहीं होती है कि वह किसी करली जाती है। परन्तु स्थापना करके पूजन तो एकदो