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वीतराग प्रतिमाओंकी अजीब प्रतिष्ठा विधि
[लेखकः-- श्री बाबू सूरजभानजी वकील ]
न शास्त्रोंके पढ़ने और पं० गोपालदास श्रादि अधिक न उलझने पावे । सारचौबीसी नामक ग्रन्थ में "विख्यात विद्वानोंके उपदेशोंस अब तक यही मालूम लिखा हैहुश्रा है कि जैनधर्म मूर्तिपूजक नहीं है किन्तु मूर्तिसे यत्रागारे बिना_हो नास्ति पुरुषकानृणाम् । मूर्तिका तो काम लेने वास्त ही वीतराग भगवानकी सद्गृहं धार्मिकैः प्रोक्तं पापवं पपि म मम ॥१५॥ मूर्तियोंको मन्दिरों में स्थापित करने की आज्ञा देता है, अर्थात्--जिस घर में मनुष्योंको पुण्य प्राप्त कराने जिमस अर्हत भगवानकी वीतराग छविको देवकर, वाली जिनप्रतिमा नहीं है उम घरको धार्मिक पुरुष देखने वालोंके हृदयमें भी वीतराग भाव पैदा हो । जैन- पाप उप जानेवाला पक्षियोंका पर बताते हैं । इस ही धर्मका मार एकमात्र वीतरागता और विज्ञानता ही प्रकार पद्म पुराण के पर्व ६२ में लिग्या है-- . है, यह ही मोनका कारण है । इन दोनोंमें भी एकमात्र अग्रप्रभृति पद्गेहे विवं नैनं न विद्यते । वीतरागता ही विज्ञानताका कारण है । वीतरागतास मारी मति मळ्यात्री यमाऽनाथं कुरंगकम् ॥ ही कंवलज्ञान प्राप्त होता है और सर्व सुख मिलता है अर्थात्--जिम घरम जिन प्रतिमा नहीं है उम इस ही वास्ते जैनधर्म एकमात्र वीतरागता पर ही ज़ोर घरको (घर वालोंकी) मारी (प्लंग जैसी बीमारी) उसी देता है, जो वास्तवमं जीवात्माका वास्तविक स्वभाव तरह खाती है जिम तरह अभय हिरणको शेरनी । वा धर्म है । उस ही वीतरागताकी प्राप्तिको मुख्यहेतु जैनधर्म वीतराग धर्म है, इस ही कारण वह परम वातगग कथित जिनवाणीका श्रवण, मनन और पठन- वीतरागीदेव, वीतरागीगुरु और बीतगगताकी शिक्षा पाठन है, जिसमें वीतरागताकी मुख्यता श्रेष्ठताको भनी देनेवाले शास्त्रांकी ही पूजा वंदना करनेकी आज्ञा देता भोनि दिखाया गया है और वस्तुस्वभाव तथा नय-प्रमा- है तथा रागीदेव, रागीमाधु और रागको पुष्ट करने रग के द्वारा हदयमे बिठानकी प्रचुर कोशिश की गई है। वाले शास्त्रोंको अनायतन ठहगकर उनसे बिलकुल ही इस ही के साथ जिन्होंने वीतरागता प्राप्त कर अपना दूर रहने पर जोर देता है । वीतरागदेव, गुरु, शास्त्रकी परमानन्दपद प्राप्त करलिया है उनको वीतराग-मूर्ति के पूजा प्रतिष्ठा वंदना-स्तुति भी वह किमी मामारिक कार्य दर्शन होते रहना भी वीतरागभाव उत्पन्न करनेके की सिद्धि के वास्ते कग्ना कतई मना करता है । इम वास्ते कुछ कम कारण नहीं है । इसीसे जैनशास्त्रोंमें प्रकारकी कांक्षा रग्बन वालेको तो जैनधर्म सभा भवानी घर घर जिनप्रतिमा विराजती रहनेको अत्यन्त जरूरी ही नहीं मानता है किन्तु मिथ्यात्वी ठहराता है। भक्ति बनाया है, जिससे उठते-बैठते हरवक्त ही सबका ध्यान स्तुति-पूजा-पाठ अादि धर्मकी मब किया तो बा एकवीतगग-मूर्ति पर पड़ता रहे और यह पापी मन संसारमै मात्र वैराग भाव हल करने के वास्त ही जरूरी बताता है।