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________________ भनेकान्त फाल्गुन वीर-निर्वाड सं० २१॥ हमा। सामने शत्रु दल कटिबद्ध था, रणभेरी निकलने लगी, वीरत्व उमड़ पाया, नसोंको तोड़ फिरसे भारी उत्साहके साथ बजी और युद्धका कर बाहिर पड़ने के लिए रक उभरने लगा । ढोर भीषण वेग प्रारम्भ हुमा। को कान पर्यंत खेंचकर उसने सामने एक भीषण युद्ध नवीन नहीं था, पैदलसे पैदल, हाथीसे बाणका प्रहार किया, बाणके वेगके साथ साथ हायी और रथीसे रथी लड़ने लगे। मीलों तक उसका भीषण परिणाम हुआ। प्रतिस्पर्धीका रथ गोला फेंकनेवाली तोपों, जहरीली गैसों और टूटा, घोड़ा मरा, रथवाह कभिदा और सवारको घातक यंत्रोंका वर्तमानमें जितना मान है इससे छातीको तोड़ता हुआ तीर उस पार निकल गया। कहीं अधिक मान प्राचीन युद्ध पद्धतिमें मनुष्यको नतुवाका कर्तव्य पूर्ण हो चुका । उसने मातृप्राप्त था। भूमिका ऋण चुका दिया, छातीमें से तीर निका लते ही प्राण निकल जायेंगे । अब युद्धको आगे हमारा रथी नायक युद्ध विद्या में निपुण निर्भय चलानेके लिए वह अममर्थ हो चुका था। प्रकृति शूरवीर और अपना कर्तव्य पालन करनेमें सदा सावधान रहनेवाला धार्मिक योद्धा था। युद्ध भूमिके समीप एक वृक्ष था, वह रथसे सामने दसरा रथी था, मोरचा मांडकर नतुवा उतरा और शस्त्रास्त्र उतार डाले । पद्मासन उसके सन्मुख डट गया। लगाया, मन्याम ग्रहण किया और जागत आत्मा "इस यद्धके कारण हम नहीं, तुम्हारे राजाका के ज्वलंत भावोंमें तन्मय होगया । उसने तीर राज्य-जोम है, तुम हमारे ऊपर आक्रमण करने निकाला, रक्त की धार बह उठी । मानव-जीवन भाए हो, तुम्हारी युद्ध तृष्णाका प्रतिकार और कृतार्थ करने वाले दृढ़ प्रणी-कर्मठ, वीर नतुवाने अपना संरक्षण करनेके लिए हमें इस युद्धमें कर्तव्य परायणताकी जागृत ज्योतिक सामने, उपप्रवृत्त होना पड़ा है। राजाज्ञासे निर्दोष सैनिकोंका वासका पारणा पूर्ण किए बिना ही, खुशी खुशी बध करनेवाले यो वीर! सावधान हो, पायध ले इस नश्वर शरीर का त्याग किया। और मेरे ऊपर वार कर" दाएँ हाथपर लटकते हुए सुख सम्पत्तिको लात मारने वाले, शरीरसे तरकसमें से एक बाण निकालकर धनुषपर चढ़ाते ममत्व हटा अपने कर्तव्य पालनमें अटल रहने हुए प्रतिदीको लक्षितकर नतुवाने कहा। वाले, उज्वल अहिंसाकं जब आदर्श पर निश्चल शब्दका चारण समाप्त होनेके प्रथम ही रह स्वदेश संरक्षणको आशा शिरोधार्य करने सनसनाट करता हुमा एक बाण कवचको खेदकर और युद्ध भूमिमें कर्मभूमिमें प्राण त्यागने वाले नतुवाको छातीमें भिद गया,'प्रचंड ज्वालसे वीरका मो विजेता जैन वीर ! तुझे सहस्रों धन्यवाद हैं। रक खौलने लगा, नेत्रोंसे ज्वलंत भमिकी लपटें
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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