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________________ ६३१ अनेकान्त [भाद्रपद कार निर्वाण सं०२४६६ - नहीं कहा जा सकता । वह स्पष्ट बतला रहा है कि परन्तु खण्डन कोई कोई ही किया करता है। एक विद्वानकं भामने दूसरे विद्वानका प्रन्थ जरूर खण्डनके लिये दूसरो भी अनक बातों तथा सहारहा है। मर्वार्थमितिकार और राजवार्तिककारके यक मामग्रीकी आवश्यकता होती है, जिनकं प्रभाव सिद्धसेनसे पूर्ववर्ती होने की हालतमें, जैमा कि में अथवा अधूरेपनमें खण्डन नहीं बन सकता, ऊपर सिद्ध किया जा चुका है, यह अवश्य कहना और यदि खण्डन किया भी जाता है तो बह प्रायः होगा कि सिद्धमेनके सामने सर्वार्थाद्धि और उपहास जनक होता है । मिद्धमन यदि इस प्रकार राजवार्तिक दोनों ग्रंथ रहे हैं और उन्होंन अपनी के ग्वएडन कार्य में अधिक पड़ते और दिगम्बरोंके भाष्यत्तिमें उनका कितना ही उपयोग तथा माथ ज्यादा उलझते तो वे उस लक्ष्यम दूर जा अनुसरण किया है। और इमलिय नाम-धाम-विहान पड़ते और उसे वर्तमान रूपमें पूरा न कर पाते समान विरामतके किमी ऐसे टीका प्रथकी कल्पना जो भाष्यको श्वेताम्बरीय भागमके साथ संगत करना है जिस परम पूज्यपाद, अकलंक और बनानेका उनका रहा है। उम धुनमे वे मब कुछ सिखसेन तीनोंने ही अपनी अपनी टाकाओं में उक्त मुला मकते हैं। फिर भी ऐसा नहीं है कि सर्वार्थप्रकारकं कथनोंको अपनाया होगा उस वक्ततक कोरी मिद्धि तथा राजवानिककी मान्यनाओंका कोई कल्पना ही कल्पना कहा जायगा जब तक कि उसका खण्डन उन्होंने किया की न हो-यथावश्यक कुछ कोई स्पष्ट उल्लेखन बतलाया जावे अथवा तद्विषयक खण्डन तथा बालोचन जरूर किया है; चनांचे किसी पुष्ट प्रमाण और अनुमन्धानको मामने न पं० सुखलालजी भी अपनी उक्त प्रस्तावनामें रक्खा जाय । मात्र यह कह देना कि मिसेनने लिखते हैं-"मिदमनीय वृत्तिमें दिगम्बरीय सूत्र यदि सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिकको देखा होता पाठ-विरुद्ध कहीं कहीं ममालोचना दिखाई देती तो वे इनमें वर्णित श्वेताम्बर-भिन्न दिगम्बर है।...तथा कहीं कहींमर्वामिद्धि और राजवार्तिक मान्यताओंका खंडन किये बिना संतोष धारण नहीं में दृष्टिगोचर होने वाली व्याख्याओंका खंडन कर सकते थे, इसके लिये कोई पर्याप्त नहीं है। भी है।" ऐमी हालतम पंडित सुखलाल जीका उक्त दूसरे प्रन्थोंको देखना और उनका यथावश्यकता कथन भी कोरी कल्पना ही कल्पना जान पड़ता है। अपने प्रथमें उपयोग करना एक बात है और दूसरे ऊपरके सम्पर्ण विवेचन परसे, मैं समझना हूँ, के किसी मन्तव्यका खडन करना बिल्कुल दूमरी सहृदय पाठकोंको इम विषयमें कोई सन्देह नहीं बात है। दूमरे ग्रंथोंको देखकर उनका उपयोग रहेगा कि सिद्धसेन गणोके सामने सर्वार्थसिद्धि करने वालेके लिये यह कोई लाजिमी नहीं कि वह और राजवार्तिक दोनों प्रथ मौजूद थे तथा उन्होंने दूसरेके मन्तव्यका खंडन भी जरूर करे, चाहे वह अपनी भाष्यवनिमें इनका यथेष्ट उपयोग किया कैसी ही प्रकृतिका क्यों न हो। ६थ अनेक पढ़ते हैं है। और इसलिये पं० सुखलालजीने इस सम्बन्ध या कल्पना पं० सुखजानाजीने तत्वार्थमन्त्री में जो कल्पनाएँ की हैं वे समुचित नहीं हैं। अपनी हिन्दी टीकाकी प्रस्तावनामें की है। वीरसेवामन्दिर, सरसावा, ता० १०८-१९४०
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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