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वर्ष ३, किरण ११]
सिद्धमेमके सामने सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक
विरोधिद्रव्योपनिपाताभिक्षचितवियोगानिष्टनिष्ठुर प्रभवः स्कन्ध परिणामः । धनादिरपि धर्माधर्माकाशअवसादिवाह्य साधनापेक्षपादसद्वद्योदयादुत्पद्यमानः पीडालक्षणः परिणामो दुःखमित्याश्यायते ।
विषयः ।
— राजवार्तिक, ६, ११ विरोधिद्रव्यान्तरोपनिपातामिलषितवियोगानिष्टश्रवादसद्वेयोदयापन्नः पीडालचणः परिणाम आत्मनो दुःखमित्यर्थः ।
- भाष्यवृत्ति, ६, १२
धर्मप्रणिधानात् क्रोधादिनिवृत्तिः शांतिः । - राजवार्तिक, ६, १२ धर्मप्रणिधाना क्रोधनिवृत्तिर्मनोवाक्कायैः शांतिः ।
— भाष्यवृत्ति, ६, १३ धाष्ट प्रायमसंबद्धबहुप्रलापित्वं मौखर्यम् ।
- भाष्यवृत्ति ५, २४ पृ०३६० प्रतिसेवनेति चत्वाभावः क्रियतरामि संबंधात् ॥३॥ यथा विगताः सेवकाः अस्माद ग्रामाहिसेवको ग्राम इति षत्वं न भवति तथा प्रतिगता सेवना प्रतिसेवनेति क्रियांतरामिसंबंधात् चत्वं न भवति । - राजवार्तिक ६, ४७
प्रतिगता सेवना प्रतिसेवना । क्रियायोगात्यये सत्युपसर्ग सब्ज्ञाभावात् पत्वाभावो ऽतिरिक्तवत् । - माध्यवृत्ति ६, ४६, पृ०२८६ इसी प्रकारके और भी बहुतसे अवतरण दिये जा सकते हैं, जिन्हें लेखवृद्धि के भयले यहाँ छोड़ा जाता है। हाँ, एक बात और भी यहाँ प्रकट कर - राजवार्तिक, ७, ३२ देने की है और वह यह कि ५ वें अध्यायके 'द्वयधिकादिगुणानां तु' सूत्रकी व्याख्या करते हुए पूज्यपाद और अकलंकने "विद्धस्स विद्धेय दुराधिपुराण" इत्यादि गाथा 'उक्तं च'रुपमे उद्धृत की है। सिद्धसेन ने भी इसी सूत्र के भाष्य की वृत्ति लिखते हुये उक्त गाथाको उद्धृत किया है और उसे पूर्वके तीन सूत्रोंके साथ इस सूत्रको लेकर 'सूत्र चतुष्टार्थक बतलाया है । परन्तु हरिभद्रने ऐसा न करके इससे पहले सूत्रको वृतिमें ही उक्त गाथाको उधृत किया है। इससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि सिद्धसेनको इस विषय में आचार्य हरिभद्रका क्रम पसन्द नहीं रहा किन्तु दिगम्बरीय व्याख्याओंका क्रम ठीक जचा है और इमीसे उन्होंने उसका अनुकरण किया है।
चाय प्रायमसम्बासम्बद्ध बहुप्रलापित्वं मौखर्यम् । — भाष्यवृत्ति, ७, २७ राजवातिकको लाक्षणिक पंक्तियों के अतिरिक्त उसके वार्तिकोंकी अन्य व्याख्याको भी कहीं कहीं पर चलाया गया है जिसके कुछ उदाहरण निम्न
प्रकार
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आओ द्वेधा जादिमदनादिविकल्पात् ॥ ११ ॥ आयो वैखसिको बंधो द्विधा भिद्यते । कुतः आदिमदनादिमविकल्पात् । तत्रादिमान स्निग्धरूढगुणानिमित विद्युदुस्कानखधारा ग्नींमधनुरादिविषयः । अनादिरपि बैनसिकबंधो धर्माधर्माकाशानामेकशः त्रैविध्याव विधः ।
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— राजवार्तिक, ५, २४ fare: स्वभाव: प्रयोगनिरपेको विश्वसाबन्धः, सद्विधा आदिमदनादिमभेदात्, तत्रादिमान् विद्युदुक्का धराग्नीन्द्रधनुःप्रभृतिर्विषमगुणविशेष परिणतपरमाणु
ऊपर के इन सब अवतरणों तथा इसी प्रकार के दूसरे अवतरणों में भी ध्यान खींचने वाला जो भारी सादृश्य पाया जाता है उसे यों ही आकस्मिक