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को दुखेम है देश-काल परिमित सलाके सेक्क बने हैं। के सब धर्मके धर्म तत्त्वकी सूक्ष्मता:खोममें धर्मामासके पीछे चलने वाले हैं, जलके लोभमें . मरीचिकाके पीछे दौड़ने वाले है, अमतके लोभमे . या धर्म-तत्व यद्यपि बहुत सीधा और. सरन, ससार-ननमें घूमने वाले हैं । ये सब धर्म हीन है। बहुत निकट और स्वाभित है। यह ऐसा ही सीधा है
जैसे दीप-शिखा, ऐसा ही सरल है जैसे दीप-प्रकाश, इसका क्या कारण है ? जब सब ही जीव सुस्तके ऐसा ही निकट है जैसे दूधमें घी, ऐसा ही, स्वाभित है अभिलाषी है, सब ही सुखके लिए प्रयत्नसेल है, तो वे जैसे शरीरमै स्वास्थ्य । यद्यपि यह सर्वप्राप्य , सकल सुख मार्ग पर क्यों नहीं चलते १ उनकी दृष्टि धर्मको भेद भाव-रहित प्राणिमात्रमें मौजद है । यद्यपि इसीके
और क्यों नहीं जाती ? वे धर्मका प्राचरण क्यों नहीं सहारे समस्त जीवनका विकास नीचे से ऊपरकी ओर से करते ? क्यों यह धर्म एक दकोसला है ? भ्रम है ! रहा है-शारीरिक जीवनसे सामाजिक जीवनकी ओर, दिल बहलानेकी वस्तु है ? केवल एक शुभ कामना है ! सामाजिकसे अार्थिककी ओर, प्रार्थिकसे मानसिककी धर्म वास्तविक है:
भोर, मानसिकसे नैविककी ओर, नैतिकसे आध्यात्मिक
की ओर-परन्तु इस तत्वका ज्ानना कठिन हो गया ' नहीं, धर्म ढकोसला नहीं, भ्रम नहीं, बहलानेकी है, इसके जाननेका जो साधन अन्तर्ज्ञान है, वह काम चीन नहीं, यह वास्तविक है । यह इतना ही वास्तविक में न श्रानेसे - अभ्यासमें न रहनेसे कुण्ठित होगया है, है जितना कि सुख और सुखकी भावना, पर्णता और मलीन हो गया है, खोया सा हो गया है, और जो पूर्णताकी भावना, अमृत और अमृतकी भावना। यदि इसके विपरीत तत्वको देखने जाननेका माधन है, वह सुख और सुखकी भावना वास्तविक है तो सुम्वका इन्द्रियज्ञान, बुद्धिज्ञान, स्वित्य प्रति अभ्यासमें लाने से मार्ग वास्तविक क्यों नहीं? कोई भावना ऐमी नही. अधिक अधिक तीक्ष्ण हो गया है। . . जिसका भाव न हो, कोई भाव ऐमा नहीं, जिसकी सिद्धी धर्मका तत्त्व कोई ऐसी बाह्य वस्तु नहीं जो इन्द्रियों का मार्ग से हो । जहाँ भावना रहती है, वहीं से दिखाई दे, बुद्धि से ममझमें आये, हाथ पावोंसे पकड़ उसका भाव रहती है, जहाँ भाव रहता है वहीं उसका में आये, रूपये-पैसेसे खरीदी जाए, यह अन्तरङ्ग वस्तु मार्ग रहता है। सुम्बकी भावना, पूर्णताकी भावना, है, तर्क और बुद्धिसे दूर है, हाथ और पाँवोंसे परे है । अमृतकी भावना आत्मामें बसी हैं । इसलिये सुखमयी यह जीवन में छुपा है, जीवनको विकल करनेवाली अनुतत्त्व, पूर्णतामयी वत्व, अमृतमयी तत्त्व भी आत्मामें भतिया छुपा है, जीवनको ऊपर उभारनेवाली भावरहता है। प्रात्मामे ही उसकी सिद्धीका मार्ग छुपा है। नाओमें छुम है। यह अत्यन्त महन है, यह समतासे परन्तु इस तस्वको समझने, इस मार्गको ग्रहण करनेमें दिखाई देने वाला है, अन्तानसे समझमें श्रानेवाला है दो कठिनाइयाँ है-१. धर्म तत्वकी सूक्ष्मता २. जीवन अनुभवी पशिडकावी इसे देख सकते हैं..। की विमूढता।
उपगीता गिनिकाय · · * मामाभूत ॥१०॥