SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 447
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त [चैत्र, वीर-निर्वाण सं०२०६६ सकता था, इसी तरह अनुपमेय मोक्षको, सच्चिदानन्द कुछ जान अथवा देख नहीं सकते; और यदि कुछ स्वरूपमय निर्विकारी मोक्षके सुखके असंख्यातवें भागको जाननेमें श्राता भी है, तो वह केवल मिथ्या स्वपनोभी योग्य उपमाके न मिलनेसे मैं तुझे कह नहीं पाधि आती है। जिसका कुछ असर हो ऐसी स्वप्न सकता। रहित निद्रा जिसमें सूक्ष्म स्थल सब कुछ जान और ____ मोक्षके स्वरूपमें शंका करनेवाले तो कुतर्कवादी देख सकते हों, और निरुपाधिसे शान्ति नींद ली जा है। इनको क्षणिक सुखके विचारके कारण सत्सुखका सकती हो, तो भी कोई उसका वर्णन कैसे कर सकता विचार कहाँसे श्रा सकता है ? कोई आत्मिक ज्ञान हीन है, और कोई इसकी उपमा भी क्या दे ? यह तो स्थल ऐसा भी कहते है कि संसारसे कोई विशेष सुखका दृष्टान्त है, परन्तु बालविवेकी इसके ऊपरसे कुछ विचार साधन मोक्षमें नहीं रहता इसलिये इसमें अनन्त अव्या- कर सके इसलिये यह कहा है। बाध सुख कह दिया है, इनका यह कथन विवेकयुक्त भीलका दृष्टान्त समझानेके लिये भाषा-भेदके फेर नहीं। निद्रा प्रत्येक मानवीको प्रिय है, परन्तु उसमें वे फारसे तुम्हें कहा है। वीर-श्रद्धाञ्जलि लेo-श्रीरघुवीरशरण अग्रवाल, एम.ए. 'घनश्याम'] लिच्छिवी वंशके रन ! अमर है कीति तुम्हारी। मारत-नभमें चमक रही है ज्योति तुम्हारी ॥ धर्म-कर्म-उद्धार-हेतु अवतरित हुए थे। धर्म भहिसा प्रसर-हेतु सब चरित किये थे। जित-इन्द्रिय थे, महावीर ! सच्चे व्रतधारी । जीवोंके कल्याण हेतु थी देश तुम्हारी ॥ राज सुखोंको छोड़, धर्मकी ध्वजा उठाई। धर्ममयी भारत सुभूमि निज हाथ बनाई ॥ (२) वह ही सच्चा वीर, इन्द्रियाँ जीत सके जो। परम इष्टसे इष्ट वस्तुको त्याग सके जो ॥ धन, दारा औ पुत्र सभी का मोह तजे जो। सत्य-प्रेमसे युक्त हुआ निज-आत्म भजे जो ॥ यदपि जन्म को वर्ष भनेकों बीत गये हैं। फिर भी अद्भुत कार्य तुम्हारे दीख रहे हैं। धन्य त्याग है राज-सुखों का यश-वैभव का। महा पुरुष ! था तुम्हें ध्यान नित निज गौरव का। (३) भात्म-सहरा हो, सभी जीव तुमने बतलाये। बलि-अपयुत सब यज्ञ पापकी खान जताये ॥ हिसाका कर नाश, दयाके भाव बढ़ाये । पाउपातिके काम धर्मके रूप गिनाये ॥ करो नित्य कल्याण सभी विधि भक्तजनों का। भूतल पर हो चहूँ भोर विस्तार गुणों का ॥ श्रद्धाञ्जलि यह प्रेमपूर्ण अर्पित करता हूँ। प्रभुवरसे बहुबार विनय मनसे करता हूँ।
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy