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________________ [श्रावण,वीर विवांक ०२४ ही नहीं किन्तु इसी उपाधियुक्त इस वंशके उभय उपाधि मालूम पड़ती है । ( शल्पणिदर्पण शाखाओंके अन्य • नरेशोंके सदृश इसको भी Mangalore १८९९ पृ० १७१) 'कर्क (कक) ऐसा नाम होगा ।(क)यामी श्वेताश्व इन नामों के सिवाय इसे 'नरलोकचन्द्र' (क० ( 'कर्कः श्वेताश्वे........--) या 'श्वेत' ऐसा मा० ॥ २३) 'नीतिनिरन्तर' (II ९१)(कृतकरपमल्ल) अर्थ है । उसका उपाधि-अन्तर्गत 'भतिशय धवल' वल्लभ' (1६१ ) 'विजयप्रभूत' ( I. १४९; II यह नाम भले प्रकार दिखाई देनेसे हमारा यह १५३, III २३६, 'सरस्वतीतीर्थाक्तार' II २२५) ऊहापोह निराधार नहीं है। और 'प्रन्थान्त्य गद्य ऐसी उपाधियां थी, ऐसा इस नपतुंग (अमोघवर्ष) के और भी अनेक मालम पड़ता है। नाम या उपाधियां थी, यह बात कर्नाटक 'कवि- इस वंशके नरेशोंके शासनोंमें देवतास्तुति राजमार्ग' से तथा इसके शासनसे भी मालूम सम्बन्धी अतारिकापद्य इस प्रकार हैं-- पड़ती है :-- (१) सबोव्याहेबसा धाम पन्नामिकमकं कृतम् । (१) शर्व--ई० सन् ८६७के शासनमें (प्रा०ले. हररच यस्य कान्तेदुकलया कमांकृतम् ॥ मा० नं०४) __ यह हरिहर-स्तुति-सम्बन्धी श्लोक हैं; यह श्रीमहारानशर्वापः स्यातो रागामजदगुणैः । श्लोक ही इनके बहुतसे शासनोंमें मिलता हैअर्थिष यथार्थतां यः सममीटकनासिखधनोपेष. (२) जयन्ति ब्राह्मणः सर्गनिष्पतिमुदितात्मनः । वृद्धि निनाप परमाममोपवर्षामिधानस्य ॥ सरस्वती कृताभन्दा माः सामगोसया ॥ (२) नृपतुग-- कविराजमार्ग 1 ४४, १४६, II. (३) श्रीपरस्वत्युमामास्वामीसंश्लेषभूषितम् । ४२, ९८, १०५, III ९८, १०७, २०७, २१९, २३० भूतये भवतां भूपादनकरूपतात्रयम् ॥ और प्राचीन लेखमाला लेख नं० १३३ और प्रा. ले. मा० नं. ४, ५, ७८ और I. A. १५६ श्रादि। Vol XII. pp. 158, 181, 218. (३) अमोघवर्ष--कविराज मार्ग III १, दूसरी पंक्तिमें 'कम्+अलंकृतम्' इस प्रकार सन्धि २१७ आदि। कर लेना चाहिये । (क+शी' हेमचन्द्रका 'भनेकाय(४) अतिशयधवल-क० मा० . ५, २४, संग्रह' ५ कम् - तजे') इस प्रकारके अनेक पथ संस्कृत १४७; II. २७, ५३, १५१, III ११, १०६। कायों में हैं। माघ कविके 'शिशुपालवध काम्यके १९ (५) वीरनारायण--क० मा० । १०२, III सर्गमें बहुतसे हैं । उदाहरणार्थ१८। इसके नीचे दिये जाने वाले इसके समयके तस्यावदानैः समरे सहसा रोमहर्षिभिः । एक शासनमें इसे 'कीर्तिनारायण' ऐमा कहा है। सुरैरसि व्योमस्यैः सह सारो महर्षिमिः ॥ शब्दमणिदर्पणमें उद्धृत कन्द पद्यमें कहा प्रा. मा. और I. A. Vol. XII गया नृपतुंग यही होगा तो उसे वहाँ 'केदु P. 249 वोत्तरदेवं' ऐसा कहा जानेसे वह एक उसकी प्रा.ले.मा. और I. A., P. 264.
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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