SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 634
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्ष ३ मि. १०] १६३ (v) सजयति बगदुस्सय प्रवेश प्रथन परः करपल भो मुझरेः । इनमें से बहुतसे नरेशने जिनालयों को दान लसदष्टतपथः कथा के लक्ष्मीस्त न कक्षशाननतन्धसन्निवेशः।। भी दिया है, पर इससे इतना ही जाहिर होता है कि गिरिजाकपोल बिम्बा अपति विपचविचित्रता स भित्तिः । नृपतु गवामय-विचार त्रिपुरविजयिनः प्रियोपरोधाद्भुत मदनाभवदानशासने (2) नमस्यशिरविचन्द्र चामरचारवे । त्रैलोक्यनगरारम्भमूलस्तम्भाय शंभवे ॥ इत्यादि इनके अनेक शासनोंमें किसी प्रकारके देवतास्तुति-सम्बन्धी अथवा अन्य शिरोलेखकं बिना 'स्वस्ति' ऐसा वचनं ही आरम्भ में रहकर उसके पीछे ही लेख लिखा गया है, परन्तु इनका कोई भी लेख तथा शासन जिन स्तुति-सम्बन्धी शिरो लेखसे युक्त नहीं है । इसके पश्चात् दिया जाने बाला नृपतुगका शासन भी 'सवोव्यान' ऐमी हरिहर - स्तुति से ही प्रारम्भ होता है । इनके शासनों में तथा ताम्र पत्रों में भी बनाए हुए चिन्ह इस प्रकार हैं- ( १ ) शिव की मूर्ति (I. A. p. 156); पद्मासन से यक्कसपको पकड़े हुए शिव (1. A. pp. 179,263); शिवलिंग और नदि (I. A. pp. 22, 22, 255, 270 ); इत्यादि । इनमें पद्म सनसे गुरू और हाथसे सर्पों को उठाए हुए शिवमूर्ति राष्ट्रकूट शासनों में रूढिगत लाइन है, इस प्रकार विद्वानोंका अभिप्राय है (I. A. P. 179) 1 * प्रा० से० मा० नं० १३३, ११६ चित्रदुर्ग मं० ०१ (E.C. XI). † ऐसा Epigraphia Carnatica लेखमाला इत्यादिके अनेक ग्रामोंमें है और I. A. pp. 221, 222, 223, 224 इत्यादि । " वे सब धर्मोको समान दृष्टि से देखते थे । इससे वे जैनधर्मी थे, यह बात कही नहीं जा सकती । क्योंकि इनमें तीसरे गोविन्दने 'अशेष गंगमंडलाघिराज श्रीचाकिराज' की विज्ञापनाके अनुसार ई० सन ८१३ में एक जिनेन्द्र भवनको दान दिया है, यह बात एक शासन परसे दिखाई देती है । (I. A. pp. 13-16 ) उसी नरेशने ई० संन् ८०९ में वेदवेदांगनिष्णात ब्राह्मणको एक ग्राम दान दिया है, यह बात उसके एक ताम्रपत्र में है । (Mythic Society's Journal, Vol. XIv. No. 2, P. 88 ); और इसी ताम्रपत्रका शिरोलेख हरिहर स्तुति-सम्बन्धी ('मवोव्यात्' ऐसा ) श्लोक तथा इसीको मुद्राका चित्र शिवको मूर्ति मालूम पड़ता है। अब नृपतुंगके समय के एक शिलालेख (I.A pp. 218 219 ) का परिशीलन कीजिये И स्वस्ति ॥ सवोष्याद्वे बसा धाम पन्नानिकम संकृतम् । हरश्च यस्य कतिदुकखया कमलंकृतम् 請 ************** लब्धप्रतिष्टमचिराय कलि सुदूर मुसार्य शुद्धचरितैर्धरणीतलस्य ॥ कृत्वा पुनः कृतयुगक्रियमप्यशेषं । चित्रं कथं निरूपमः कलिवल्लभोभूत् ॥ ● यह 'निकपम कन्त्रिवल्लभ' पाने नृपतु का पितामह पहिला ध्रुव (घोर ) नामका है।
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy