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________________ जैनधर्मकी विशेषता नहीं है। किंतु यदि वह उपरोक्त पाँचों पापोंको करने देना चाहिये, यदि वह तपस्या करने लगे तो उसको वाला दूसरोंकी अपेक्षा और भी सख्तीके साथ इन जानसे मार डालना चाहिये । परन्तु जैनधर्ममें यह नियमोंको पालता है तो वह धर्मात्मा है और प्रशंसनीय बात नहीं है । श्री समन्तभद्र स्वामी लिखते हैं कि चाहै। और जो जो इन पांचों पापोंसे बहुत कुछ बचता डालका पुत्र भी जैनधर्मका श्रद्धान करले तो देव समाहै, यहाँ तक कि शास्त्रानुसार पांचों अणुव्रत पालता है न हो जाता है । इस ही से आप विचारले कि जैनधर्म परन्तु चौके के नियम अपने प्रान्त और अपनी जातिके में और हिन्दूधर्मम कितना आकाश पातालका अंतर अनुसार नहीं पालता है, दृष्टान्तरूप जिस प्रान्तमें रोटी है । बाह्य शुद्धि और सफ़ाई रखना वेशक गृहस्थों के कपड़े उतारकर और चौकेमें बैठकर ही खाई जाती है, वास्ते ज़रूरी है । परन्तु उनका कोई सिद्धान्त ज़रूर उस प्रान्तका रहनेवाला पक्का अणुव्रती अगर चौकेसे होना चाहिये, जिसके आधार पर उसके नियम स्थिर बाहर दूसरे पवित्र और शुद्ध मकानमें रोटी लेजाकर किये जावें । उन्मत्तकी तरहसे कहीं कुछ और कहीं शुद्ध और पवित्र कपड़े पहने हुए खा लेता है तो वह कुछ करनेसे तो मखौल ही होता है; कारज कोई भी महा पतित और अधर्मी गिना जाता है। सिद्ध नहीं होसकता है। इस कारण विचारवान पुरुषोंको ____ इस ही प्रकार के अन्य भी अनेक दृष्टान्त दिए जा उचित है कि श्रापममें विचार-विनिमय करके जैन धर्मासकते हैं जिनमें जैनियोंमें उन पापोंसे बचनेकी बहुत नुसार हमका कोई मिद्धान्त और नियम थिर करें जो शिथिलाचारिता आगई है जिनको जैनधर्ममें पाप सब ही प्रान्तों और जातियोंके वास्ते एक ही हो । कहाँ ठहराया है । एक मात्र इन प्रान्तीय बाह्य क्रियाओंका कुछ और कहीं कुछ जैमा अब हो रहाहै,यह न रहे और करना ही धर्म रह गया है, जिमसे दौंग और दिखावा यदि यही बात स्थिर करनी हो कि जिस-जिम प्रान्तम बहुत बढ़ गया है । वास्तविकधर्मका तो मानों बिल्कुल अन्य हिंदुका जो वर्ताव है वही जैनियोंकी भी रग्वना लोप ही होता जारहा है । अन्य मतियों के सिद्धान्तों पर चाहिये, जिमसे उन लोगोंको जैनियाँस घृणा न हो, तो या बिना विचारे रूढ़ियों पर चलनेसे तो जैनधर्म किसी चौके की इम शुद्धि-मफाई और छुतछातके इन सब तरह भी नहीं टिक सकता है । इसी कारण प्राचार्योन नियमोको धार्मिक न ठहराकर बिल्कुल ही लौकिक घो. जैनियोंको अमूढदृष्टि रहने अर्थात् बिना बिचार अाँख पित कर दिया जाय, जिमम जैनियोंको इस चौका-शुद्धि मांचकर ही किसी रीति पर चलनस मना किया है। के अतिरिक्त आत्म-कल्याण रूप धर्ममाधनकी भी दुनियाके लोगोंकी रीस न कर निर्भय होकर अपनी फिकर होने लगजाये । धर्मात्मा और अधर्मात्माकी कश्रात्माके कल्याणके रास्ते पर ही चलनेका उपदेश सौटी यह चौकेकी अद्भुत शुद्धि नरह कर पंच पापोका दिया है। त्याग ही उसकी जाँचकी कसौटी बन जाय । हिन्दूधर्म कहता है कि जिसने ब्राह्मणके घर जन्म इस विषयमें बहुत कुछ लिखनेकी जरूरत है, परन्तु लिया है वह गुणवान न होता हुश्रा भी, हीन कार्य अभी इस विषयको छोड़कर हम यह जानना चाहते हैं करता हुश्रा भी पूज्य, परन्तु शूद्रके वर जन्म लेने वाला कि हमारे विचारवान विद्वान भी कुछ इस तरफ ध्यान यदि वेदका कोई शब्द भी सुनले तो उसका कान फोड़ देते हैं या नहीं। या बुरा भला जो कुछ होरहा है बना
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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