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________________ [पौष, वीर-विlam सबकी भावना नहीं कह सकते परन्तु बहुधा ऐसे हैं . . मोटे रूपसे विचार करनेसे तो यह ही मालूम होता मो. मुसलमान और अछूतोंके हाथो साग सब्जी लेकर है कि हमारे जैनी भाई हिंदुओंकी ऐसी जातियोंका जब खाते है उनसे ली हुई साग सब्जी कली तो वे चौकेसे बिलकुल ही मांस त्यागी है, अनुकरण कर इस विषय में बाहर कपड़े पहने भी खा लेते हैं परन्तु पकायेंगे उसको सभी नियम आँख मींचकर उन्हीं के अनुसार पालने चौके में कपड़े विझल कर ही और खायेंमे भी कपड़े लग गये। हिंदुओंमें उनके नियम सारे हिन्दुस्तान में निकाल कर ही। यदि कपड़े पहने खालें तो महा अष्ट प्रायः एक समान नहीं है। प्रान्त २ में मित्र २ रूपसे पापी और पवित्र माने जायें । मुसलमान साग सब्जी बरते जाते हैं । हमारे जैनी भाई भी जिस जिस बेचने वाले हमारी प्रांखोंके सामने अपने मिट्टीके लोटे प्रान्तमें रहते हैं उस २ प्रान्तके हिंदुओंके अनुसार ही से साग सब्जी पर पानी छिड़कते हैं, चाकूसे काटते प्रवर्तते हैं और इस ही को महाधर्म समझते हैं । अजब तराशते हैं, हायसे तोड़ते हैं, और हममें से बहुतसे उन गुल गपाड़ा मचा हुआ है । कोई भी सिद्धांत स्थिर से मोल लेकर खाते हैं। यह सच है कि घर जाकर उन नहीं हो पाता है। को धो लेते हैं परन्तु जो पानी दिन भर उनपर छिड़का जैनधर्ममें हिंसा, चोरी, मठ, परस्त्रीसेवन और जाता रहा है वह तो उन साग सब्जियोंके अन्दर ही परिग्रह ये ही महापाप बताये हैं। इनही पापोंके त्यागके प्रवेश कर जाता है और इसी गरजसे उन पर छिड़का वास्ते अनेक विधिविधान ठहराये हैं। जो जितना जाता है कि जिससे वे हरी भरी रहे । तब धोनेसे तो वह इन पापोंको करता है वह उतना ही पापी है और जो पानी निकल नहीं सकता है, तो भी धोकर वह साग जितना भी इन पापोंसे बचता है वह उतना ही धर्मात्मा सब्ज़ी खाने योग्य हो जाती है, इनमें से मूली गाजर है। परन्तु जबसे जैनियोंने अपने हिन्दु भाइयोंके केला अनार अमरूद श्रादि जो फल कच्चे ही प्रभावमें प्राकर-(हिन्दू २५ करोड़ और जैनी ११ खाने होते हैं वे तो चौकेसे बाहर भी सब जगह कपड़े लाख ही रहजानेसे-उनका प्रभाव पड़ना लो जमरी पाने हुए ही खा लिये जाते हैं, यहां तक कि जूता था ही) धर्मात्मा और अधर्मी, शुद्ध और पातकीका पहने हुए भी खा लिये जाते है । परन्तु पकाये जायेंगे निर्णय करनेके वास्ते अपने इन २५ करोड़ हिन्दु चौके में कपड़े निकाल कर.ही और पकाकर भी खाये भाइयोंका ही सिद्धान्त ग्रहण कर लिया है, तबसे जायेंको निकाल कर ही । इस प्रकार यह मामला जैनियोंमें भी यदि कोई फैसा ही चोर, दगाबाज, कठा, ऐसा विचित्र है कि जिसका कोई भी सिद्धान्त स्थिर नहीं फरेबी, परकीलम्पट, वेश्यागामी, महापरिग्रही, धनहोता है। यदि यह कहा जाय कि अनिका सम्बन्ध लोलुपी, यहाँ तक कि अपनी दस बरसकी छोटीसी होनेसे ही ऐसी शुचि क्रियाका करना जरूरी हो जाता है बेटीको धनके लालचसे ६० बरसके बढ़े ससटको बेच तो भने मटरके बूट और मूंगफलीके होले, तो जंगलमें कर उसका जीवन ही नष्ट भ्रष्ट कर देने वाला हो; कहाँ भी भूव कर खा लिये जाते हैं। अनेक प्रकारके चने तक करें, चाहे जो कुछ भी करता है। जिसको काते और चिड़वे भी इस ही प्रकार खा लिये जाते हैं। इस गर्म पाती है परन्तु चौकेके नियमोको अपने प्रान्तकी प्रकार कोई भी सिद्धान्त स्थिर नहीं हो पाता है। प्रचलित रीतिके अनुसार, पालता हो तो पातकी
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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