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जैनधर्मी विशेषता
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मुनिका जीवन सर्वच प्राध्यात्मिक जीवन है, लौकिक दीजिये और जाँच कीजिये कि इस विषय में भी हिन्दु जीवनका उसमें लेश भी नहीं है, इस कारण वह शरीर धर्म और जैनधर्म में क्या अन्तर है। हिन्दुओंके महा को किंचित मात्र भी धोता मोजता नहीं है। अणुप्रती मान्य अन्य मनुस्मृतिमें हर महीने पितरोका भार करना का जीवन धार्मिक और लौकिक दोनों ही प्रकार मिभित और उसमें मांसका भोजन बनाने की बहुतही ज्यादा ता. रूप होता है, जितना २ वह धार्मिक होता है, उतना २ कीदकी गई है और यहांतक लिखा है कि भादसे नियुक्त तो वह शरीरको घोता मांजता नहीं, किंतु विषय कषायों- हुत्रा जो ब्राह्मण मांस खानेसे इन्कार करदे पा इस महा केहीदूर करनेकी फिक्र करता है और जितना २ वह अपराधके कारण रबार पश जन्मधारणकरेगा उनके लौकिक हो जाता है, उतना २ वह शरीरको भी सुंदर इस ही महामान्य ग्रन्थमें यह भी लिखा है कि यदि को. बनाता है और अन्य प्रकार भी अपनी विषय कषायोंको द्विज अर्थात् ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य लहसुन और अन्य मी पुष्ट करता है । इस अणुव्रती भावकको शास्त्रकारोंने अनेक वनस्पति जिनका ब्यौरा उसमें दिया खाले,खाना दूसरी प्रतिमासे ग्यारहवीं प्रतिमातक दस श्रेणियों में विभा- तो दूर रहा खानेका मनमें विचार भी कर ले तो यह जित किया है। इन श्रेणियोंमें उत्तरोत्तर जितनी २ पतित हो जाता है। अर्थात् विना प्रायश्चितके खुब किसीकी लौकिक प्रवृत्ति कम होती जाती है और नहीं हो सकता है। अब विचार कीजिये कि यह दोनों अध्यात्म बढ़ता जाता है उतना ही उतना शरीरका कथन कैसे संगत होसकते है बामण व अन्य पे जातिया धोना मांजना सिंगार करना और पुष्ट करना भी उसका जो माँस खाना उचित मानती है बहुधा शिकारी कुत्तोंकम होता जाता है। अब रहा पहली प्रतिमा वाला जो से या अन्य शिकारी जानवरोंसे मारा हुआ पशु पक्षी, भवानी तो होगया है किन्तु चरित्र अभी कुछ भी ग्रहण इसी प्रकार चांडाल आदि म्याचोसे मारा हुमा मांस नहीं किया है। किंचित् मात्र भी जिसने अभी त्याग शुद्ध समझती हैं और प्राण कर लेती है, मुसलमान नहीं किया है, किंतु त्याग करना चाहता जरूर है, वह साईकी दुकानसे बकरका मास मी ले जाती है परन्तु नित्य प्रति शरीरको धोता, मोजता, श्रृंगार करता और वह मांस कपड़े उतारकर ही पकाया और लाया जायेगा, पुष्ट करता जरूर है। अन्य भी सब प्रकारकी विषय- यहांतक कि जिस चौकेमें वह मांस पकता हो,उस चौके कषायोंमें पूर्ण रूपसे लगा मी जरूर होता है परन्तु इन की धरतीको भी यदि कोई उन्हींकी जातिका पुरुष शुद्ध को धर्म विरुद्ध और लोक साधना मात्र समझ कर कपड़े पहने हुए भी दे तो सारी रसोई घर हो जावेगी, त्यागना ज़रूर चाहता है इससे भी घटिया जिसको धर्म सभी हिन्दु, जिनमें अब बहुतसे जैनी भी शामिल का भदान ही नहीं हुआ है, निरा मिथ्यात्वी ही है वह है, चौकेसे बाहर कपड़े पहने हुए यहाँ तक कि कोईर तो अपनी विषय कषायोंकी पुष्टिको और अपने शरीर तो जूते बने हुए भी पानी दूध, चाय और ग्राम को भो-मांजकर सुंदर रखने और पुष्ट बनानेको ही अमरूद अंगर अनार आदि फल सपा और मीचनेक अपन्न मुख्य पान और अपने जीवनका मुख्य ध्येय पदार्थ खा पी लेते है। इस ही प्रकार बाषा हिन्दू और समकता है। . . . जैनी जो मुसलमानके परका पूष और पीलाते। ..अब जरा खाने पीनेकी हुनिलियापर भी ध्याम भी रोये चौकसे बाहर खानेसे पतित समाते।