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वर्ष, किरण 1]
गोम्मटसार कर्मकापरकी त्रुटि पूर्ति पर विचार
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कर्मकाण्डकी २० वीं और 11वीं गाथा सुसंगत जान कर छोर दिया है। उनका अभिप्राय वा उम प्रतीत होती है । उनके बीच उक्त पांच गाथा डाखने भेद-प्रभेदोंका वर्णन कर देना रहा है जिसमें उन्हें अप से उनमें व्युत्क्रम उत्पन होता है।
विशेषता दिखाई दी और जिनकी घोर पाठकों का ध्यान कर्मकारसकी माठ कर्मों के उदाहरण देने वाली २१ माकर्षित करना उगे पावश्यक बंचा ज्ञानावरव वी गाथाके पश्चात् २२ वीं गाथामें उन पाठों कोंकी और दर्शनावरणके भेद-प्रभेदोंका ज्ञान जीव कायरमें उत्तर प्रकृतियोंको संख्याका क्रमिक निर्देष किया गया भी कराया जा चुका है, जहां कर्म प्रकृतिको इन्हीं २ है जो बिस्कुल सुसगन है । उनके बीचमें कर्म प्रकृतिकी गावानों में से । गाथा पाचुकी हैं। उन सबकी यहां पाठकों के स्वभाव विषयक दृष्टान्तोंको स्पष्ट करके पुनरावृत्ति करनेकी अपेक्षा भाचार्यने केवल उन स्थलों बतलाने वाली २८ से १५ तफकी माठ गाथा मोंकी पर अपनी मगुखी रखी है जिनका ज्ञान उस सामान्य कोई विशेष प्रावश्यकता दिवाई नहीं देनी, खास कर प्ररूपणमे नहीं हो सकता था। निद्रादि बाण इसी जबकि उनके स्टान्त प्राचार्य २१ वी गाथामें दे चुके प्रकार है और इसलिये मात्र उन्हींका पहाँ वर्णन हैं। ये पाठ गाथायें २१ वी गापाके स्पष्टीकरणार्य टीका करना भाचार्यमे उचित समझा । इसमें कोई त्रुटि रूप भले ही मान ली जावे, किन्तु सार अन्धके मूलपाठ ज्याज करना अनावश्यक है। में उनकी गुंजाइश नहीं दिखाई देती।
ठीक यही बात कर्मप्रकृतिकी उन दो गाथानों कर्मकाण्डकी २२ वीं गाथामें उत्तर प्रकृतियोंकी और १४ गाथानों व गायानों के विषयमें कही वा क्रमिक संख्या बता देनेके परचात २३ वी गाथामे एक सकती है जिनको क्रमशः कर्मकाण्डको २५ वीं, २६ दम पांच निद्रामोंका कार्य प्रारम्भ हो जाता है। यह वीं और २०वीं गाथाके पश्चात् रख देनेकी तनवीन की एक विशेष स्थल है जहां पं० परमानन्दनीको कर्मकाएर गई है। यथार्थतः उनसे सिवाय नाम निर्देष और की त्रुटि बहुत खटकी है, क्योंकि उनके मतानुसार सामान्य स्वरूप ज्ञानके कोई नया प्रकाश नहीं मिलता। विषयको पूरा और सुसंगत बनानेके लिये यहां उत्तर उनमें से सात गाथायें जीवकारडमें भा भी चुकी हैं। प्रकृतियों के नाम व स्वरूपका क्रमशः वर्णन होना चाहिये दर्शन मोहनीयमें बंध मिख्यास्वका और उदय तथा था और उसीमें निद्राका पथास्थान विवरण प्राता तब सत्त्व तीनोंका रहता है, अतः शेष दो प्रकृतियोंका ठीक था । इसी कमीकी ये कर्म प्रकृतिको ३० से ४८ अस्तित्व कैसे हो जाता है, इस विशेषताका ज्ञान तककी १२ गाथाओं द्वारा पूर्ति करते हैं । इस सम्बन्ध करानेके लिये कर्मकायसमें गाथा नं० २६ निवड कर्मकारतकी रचनाकी विशेषताकी भोर हमारा ध्यान की गई है, तथा पाँच शरीरोंसे संयोगी भेद कैसे बन नाता है, और सारे प्रन्धको देखते हुये हमें ऐमा प्रनीत जाने है, इस विशेषताको बतलाने के लिये गाथा नं. होता है कि यहां तथा भागामी त्रुटि पूर्ण जंचने वाले २० रखी गई है। मामकर्मकी प्रकृतियोंमें अग और स्थलों पर कर्ताका विचार स्वयं प्रकृतियोंके मेदोपभेदों उपांगका मेव किस प्रकार हुमा इस विशेषताको गिमानेका नहीं था । यह सामान्य कथन या तो उनकी दिखाने वाली गाथा . २८ रखी गई है। शेष भेदरखनामें भागे पीछे पाचुका है,या उन्होंने मे सामान्य प्रभेद तो सामान्य है, अतः जान बूझकर भी वे यहाँ