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________________ अनेकान्त [भाद्रपद, वीर निर्वाण सं०२४६६ रचयिता द्वारा ही छोड़े जा सकते हैं। किन्तु कर्मप्रकृतिकी गाथा मं०७५ में दो प्रकार कर्मकाण्डकी २१ से ३२ तककी माथाओं में किस की विहायोगति भी गिना दी गई है, जिसमे वहाँ संहनमसे जीव किस गतिमें जाता है, इसका विवरण शरीरसे लगाकर स्पर्श तककी संख्या १२ हो गई है। दिया गया है, और केवल उन्हीं बातोंको बसलाया अब यदि इन गाथाओंको हम कर्मकाण्डम रख देते है. गया है जिनके समझनेके लिये बंधादि अधिकार पर्यात तो गाथा नं० ४७ के वचनसं विरोध पड़ जाता है । नहीं हैं। यहाँ मनुष्यों और नियंचोंके किन संहननोंका इससे सुस्पष्ट है कि कर्मकाण्डके रचयिताको दृष्टिम इन उदय होता है, इसके बतलानेकी तो मावश्वकता ही गाथानों का क्रम नहीं है टीकाकारने भी विहायोगनि नहीं थी, क्योंकि उदय प्रकरणकी गाथा नं० २१४ से के दो भेदोंको छोड़ कर ही पचास भेद गिनाये हैं। ३०३ तककी गाथाओंमें तियंचों और मनुष्योंके उदय, अतएव इन गाथाओंको कर्मकाण्ड में रख देना उसमें अनुदय और उदयव्युच्छित्तिरूप जो प्रकृतियाँ बतलाई पूर्वापर विरोध उत्पन्न कर देना होगा। गई हैं उमीमे किस तियंचके या मनुष्यके कितने संह- कर्मकाण्डकी गाथा न. ३३ मे पानाप और नन होते हैं, इसका भी पता लग जाता है । नं० उचोत नामकी प्रकृतियाँक उदयका नियम बतलाया २६५ से २७२ तककी गाथा मोंमें जो गुणस्थानोंकी गया है जो अपनी विशेषता रम्वता है। शेष प्रकृतियों अपेक्षा उदयादिका कथन किया गया है, उससे किम में ऐसी कोई उल्लेम्वनीय विशेषता नहीं है । अतएव गुणस्थान तक कितने संहनन होते हैं; इभका मा पता कर्म प्रकृतिका नं० ८१ ग्ये ६१ नककी पाँच नथा १७ मे लग जाता है। यंत्रका दृष्टिः. भोगभूमिके क्षेत्रों में पहला १०२ नककी छर गाथाशों के रहने न रहनेमे कोई बडा संहनन होता है, इसका पता ३०२ और ३०३ नं. की प्रकाश व अन्धकार नहीं उत्पन्न होता । यही बान कर्म मे लग जाता है और पारिशेष न्यायम यह भी प्रकृतिकी शेष ११३६ ११७तकको पाँच गाथाओंके समझमें भाजाता है कि कर्म मिमें सभी सहनन विषयो कही जा सकती है. जिनमें कंवल तीर्थकर होते हैं। इसी क्षेत्र-व्यवस्थाकं उपरमे काल व्यवस्था प्रकृतिका बंध कगने वाली पांडश भावनामांके नाम भी ममममें आजाती है। अतएव कर्मप्रकृनिकी ७५ में गिनाये गये हैं और जिन्हें कर्मकाण्डकी गाथा नं. ८२ नकको पाठ व ८६ से ८ सकी चार गाथाओंके ८०८ के श्वात् जोड़नेकी नजवीज की गई है। यहाँ न रहनेमे कर्मकाण्डम कोई त्रुटि नहीं रहती। प्रसंगवश यहाँ कर्मप्रकृतिको एक गाथाके पाठ व संहननोंका उम गतियों से संबंध उपर्युक्त प्रकरणों में उसके अर्थका भी स्पष्टीकरण अनुपयुक्त न होगा । नहीं जाना जा सकता था, अतएव उस विशेषनाको गाथा नं०८७ में 'मिच्छापुब्व दुगादिमु' के स्थान पर बसलामा यहाँ प्रावश्यक था। अर्थसोकर्म व मागेके संख्याक्रमसे सामंजस्य बैठानेके ___एक बात और विशेष ध्यान देने योग्य है । कर्म- लिये 'मिच्छापुज्व-खवादिसु' ऐसा संशोधन पेश किया कारखकी गाथा मं०१७ में स्पष्ट कहा गया है किदेह गया है। किन्तु इस संशोधनके बिना ही 54 गाथा लगाकर स्पर्श तक पचास कर्मप्रकृतियाँ होती हैं- का अर्थ बैठ जाता है और सशोधित पाठसे भी अच्छा दहादी फासंता परणासा...। बैठता है वहाँ अपूर्वद्विकादिप अपूर्धादि उपशम श्रेणी
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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