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अनेकान्त
[भाद्रपद, वीर निर्वाण सं० २४६६
पं० फुलचन्द्रजी शास्त्री व पं० हीरालालजी शास्त्रीके साथ किया, जिसका निष्कर्ष निम्न प्रकार पाया गया।
कर्मकाडकी नं० १५ की गाथाम दर्शन ज्ञान व सम्यक्त्वका स्वरूप बतलाया गया है, और उसके अनन्तर १६वीं गाथामें उन्हीं जीव गुणोंका क्रम निर्दिष्ट किया गया है। अब इन दोनों गाथाओंके बीच 'मियास्थि' आदि सप्त भगियोंके नाम गिनाने वाली कर्म-कृतिक १६ गाथा डाल देनेसे ऐसा विषयान्तर हो जाता है जिसकी सार-ग्रंथों में गुंजायश नहीं । परिपूर्णता की दृष्टि तो यह भी कहा जा सकता है कि नयोंके नाम गिना देने मात्र क्या हुआ, उनके लगा भी बतलाना चाहिये था पर यहाँ आचार्य न्यायका ग्रन्थ तो रच नहीं रहे। उन्होंने १२ वीं गाथामें ज्ञान और दर्शनका सप्त भंगियोंसे निर्णय कर लेने मात्रका उल्लेख कर दिया है, जो हां यथेष्ट है। वहां सप्ल भंगियोंके नाम गिनवाने की कोई आवश्यकता प्रतीत नहीं होती ।
कर्मrrent २० वीं गाथामें आठ कर्मोंका नाम निर्देश किया गया है और २१ वीं गाथामें उदाहरणों द्वारा उन ठोंका कार्यं सूचित किया गया है। इन दोनों गाथाओं के बीच जीव प्रदेशों और कर्मप्रदेशों के सम्बन्ध आदि बतलाने वाली कर्म प्रकृतिकी २२ से २६ तककी पांच गाथायें न रहनेसे freeकी संगतिमें कोई त्रुटि तो नज़र नहीं भाती, प्रत्युत उन गाथाओंके डाल देनेसे विषय साकांच रह जाता है; क्योंकि कर्मप्रकृति को २६ वी गाथा प्रकृति यादि बंधके चार प्रकारके नाम निर्देशके साथ समाप्त होती है । उस क्रमसे तो फिर भागे चारों प्रकारके कन्धोंका क्रममे विवरण दिया जाना चाहिये था; किन्तु वहां आठ कर्मोंके कार्योंके उदाहरण दिये गये हैं। इस प्रकार वर्तमान रूपमें
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गई थी । त्रिविध-विद्या विक्यात विशालकीति सूरिने उस कृतिमें सहायता पहुँचाई और सर्व प्रथम उसका चाबले अध्ययन किया तथा निर्मथाचार्यवर्य त्रैविद्य चक्रवर्ती अभयचन्द्रने उसका संशोधन करके प्रथम पुस्तक बिसी । यथा
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श्रित्वा कार्णाटिकीं वति वणिश्री केशवैः कृतिः (तिम्?) कृतेयमन्यथा किचित् विशाध्यं तद्वदुश्रतैः ॥ त्रैविद्यविद्याविख्यात विशालकीर्तिसूरिणा सहायोऽस्यां कृतौ चक्रेऽधीता च प्रथमं मुदा ॥ सूरेः श्रीधर्मचन्द्रस्या भयचन्द्रगणे शनः । लिलादि भन्यानां कृते कर्णाटवृत्तितः ॥ रचिता चित्रकूटे श्रीपार्श्वनाथालय मुना | साधु साङ्ग महेमाभ्यां प्रार्थितेन मुमुक्षुणा || निर्मथाचार्यवर्येण त्रैविद्यचक्रवर्तिना । संशोध्याभयचन्द्रेणा लेखि प्रथम पुस्तकः ॥
जहां यह टीका रची गई थी वह सम्भवतः वही चित्रकूट था जहाँ सिद्धान्ततत्वज्ञ एलाचार्यने धवला टीकाके रचयिता वीरसेनाचार्यको सिद्धान्त पढाया था। ऐसी परिस्थिति में यह संभव नहीं जान पड़ता कि उक्त टीकाके निर्माण कालमें व उसमे पूर्व कर्म काण्ड में से उसकी आवश्यक अंग भूत कोई गाथायें छूट गई हों या ख़ुदी पड़ गई हों।
२. कर्मकाय ढके 'अधूरे व लंढरेपन' के पांच विशेष स्थल विद्वान लेखकने बतलाये हैं जो प्रकृति समुत्कीर्तन नामक प्रथम अधिकारकी २२ वीं और ३१ वीं गाथाओं अर्थात् नौ गाथाओंके भीतर के हैं। इनके अतिरिक्त और भी कुछ स्थल ऐसे बतलाये गये हैं जहां कर्म प्रकृतिकी गाथाओंको समाविष्ट करनेकी प्रावश्यकता लेखकको प्रतीत हुई है। मैंने इस महत्वपूर्ण विषयका विचार कर्मकाकी प्रतिको सामने रखकर अपने सहयोगी