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________________ [भाषण, वीर विव.. पागते शिपयपि तक पुनबिनपुरवासी। धर्मके मूल संघो । 'सेम' संघ वाले थे, इतना ही श्रीमानेजाचार्यों बभूम सिदान्त ७६ ॥ मालूम पड़ता है, पर कौनसे 'गण' के और कौन तस्प समीपे सब सिदान्तममात्य वीरसेंगगुरुः । से 'गच्छ' वाले थे सो मालूम नहीं पड़ता। वे उपरितमनिवन्धनाधिकारन लिने बहुराः 'देशीगणं' के होने चाहिये । ये 'पुन्नाट' वीरसेनका शिष्य जिनसेन था और वीरसेन गण वाले नहीं हैं, इस सम्बन्धमें जैन विद्वानों में का विनयसेन नामक बड़ा शिष्य भी था, यह बात अभिन्न विश्वास है। जिनसेनके प्रन्थोंसे पाई जाती है 'पुनाट' इस नामको गल भी 'सेन' संघकी मीवीरसेनमुनिपाइपयोग। एक शाखा है। इसी सेन संघके पुनाटगणछके श्रीमानभूहिनयसेनमुनिगरीयान् ॥ दूसरे 'जिनसेन' ने संस्कृतमें करीब ११००० श्लोक तबोदितेन जिनसेनमुनीश्वरेण । परिमित जैन 'हरिवंश' की रचना की है । उसे काव्यं व्यपावि परिवेष्टितमेघदूतम् ॥ पारर्वाभ्युदय ४,७१ उसमे शक सं०७०५ (ई. सन ७-३) में लिख कर पूर्ण किया है । उस समय राष्ट्रकूटवंशका __गुणभद्रके 'उत्तरपुराण' को प्रशस्तिमें इस मरेश श्रीकृष्णराजका पुत्र श्रीवल्लम नामका परंपराके सम्बन्धमें इस प्रकार कथन है : दूसरा गोविन्द गही पर था, यह बात उसकी वीरमेनाप्रणी वीरसेनमहारको बभौ ॥ ४ प्रशस्तिके निम्न पद्य से पाई जाती हैमुनिरबुजिनसेनो वीरसेनामुष्मात् ॥ ३॥ दशरथगुलामीत्तस्य धीमान् मधर्मा ॥१६॥ शाकेष्वन्दशतेषु समसुदिशा पंचोत्तरेपत्तरांम् । शिष्यः श्रीगुरुमबरिरगयो । रासीजगदिश्रुतः ॥१॥ पातौन्द्रायुधनाग्नि कृष्णनृपने श्रीवहभेदषिणाम् ॥१३॥ देवसेनाचार्यने अपने 'दर्शनसार' (ई० स० इस हरिवंशपुगणके कर्ता जिनसेनने अपने ९३४) में इस प्रकार कहा है: प्रन्थ के मंगलाचरण + में वीरसेन, जिनसेनासिरिवारसेशसिस्सो बिबसेको सपनसत्यविण्णाणी ॥३० चाया चार्योंकी इस प्रकार प्रशंसा की है:तस्स य सिस्सो गुणवं गुरुमदो दिव्वणाणपरिपुरणो॥३१. । इस मूलसंधकी शाखा इत्यादिके संबन्ध ये वीरसेन, जिनसेन, गुणभद्र दिगम्बर जैन श्रवणविजगुलके बहुतसै शासनोम उल्लेख है। 4. सि. भा० १५० २७ (E. C: Vol. II) 'भक्यो।' इन दोनोंका अर्थात् जिनसेन और वि०२० मा० पृ. दशरय दोनोंका शिष्य । ___*. सि. भा. १, २-३ पृ..। •संस्कृत छाया (पनि पुनमाया गुबी') श्रीवीरसेनशिष्यो जिनसेनः सकलशास्त्रविज्ञानी ॥३० . सि. मा. १, २-१. पृ०.४ तस्य शिष्यो गुगवान मुबमको विन्यज्ञानपरिपूर्ण + जै. सि. मा..,५००
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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