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वर्ष ३. किरण ..]
नृपतुंगका मत विचार जितात्मपरखोकस्य कवीनां चक्रवतिनः ।।
गुरु शिष्य दोनों के जीवित रहते वक्त वैसा कहना पीरसेनगुरोः कीतिरकलंकावभासते ॥..॥ अनुचित होगा। इस मंगलाचरणकी रचना करने वामिताभ्यलये तस्य जिनेन्द्रगुणसंस्तुतिः। वक्त वीरमैन स्वर्गवासी हो चुका होगा केवल स्वामिनो जिनसेनस्य कीर्तिः संकीर्तयस्यसौ ॥॥ जिनमन मौजूद था ऐसा मालूम पड़ता है। पर्द्धमान पुराणोधदावित्योतिगभस्तयः । वैसे ही उसे 'स्वामी' इस प्रकार संबोधित करनेसे प्रस्फुरन्ति गिरीशान्तः स्फुटस्फटिकभितिषु ॥ ४२॥ वह उस वक्तका महाविद्वान् तथा बड़ा प्राचार्य
होता हुमा प्रख्यात हुआ होगा। अत: वैसा कीर्तिये श्लोक 'हरिवंश' के आदि-भागमे हैं, जिस वान होने के लिये उस कीर्तिके कारणभूत अनेक के ११००० श्लोक लिखनेमें कममे कम ५ साल काव्योंकी उसने रचना की होगी। उस वक्त उसकी तो लगे होंगे। भतः जिनसेनने उसे शक सं० अवस्था कमसे कम २५ वर्ष तो अवश्य होगी इस ७००( ई० सन् ७७८ ) में लिखना प्रारंभ किया से कम तो सर्वथा नहीं होगी,यह बात निश्चयपूर्वक होगा ऐसा मालूम पड़ता है । तब वीरसेन कवि- कह सकते हैं। ऐसी अवस्थामें वह शक सं० चक्रवर्ती कहलाते थे, उसके पहिले उन्होंने अनेक ६७५ ( ई. सन् ७५३ ) के पहिले ही पैदा हुश्री काव्योंकी रचना की होगी; वैसे ही उनके शिष्य होगा। जिनमनने भी उसके पहिले संस्कृतमें 'वर्धमान- वीरसेनाचार्य के शिष्य हमारे जिनसेनने पुराण' तथा 'जिनेन्द्रगुणसंस्तुति' • नामका उपर्यत दो प्रन्थोंके मिवाय ® और भी काव्य लिखकर पूरा किया होगा। इस हरिवंशमें अनेक संस्कृत काव्योंको लिखा है, जिनमें मुख्य गुरु वीरसेनको 'स्वामी' कहे बिना उनके शिष्य -- जिनसेनको 'स्वामिनो जिनमनस्य' कहा जाने
व्याख्या ई० सन् ८३७.८३८ में लिखी है; ई. स.
०७८-७३ के अन्दर लिखे गये 'हरिवंश' में उस * इस कायका नाम (पानिनन्द्रस्तुति ) है, कारणसे उसे 'स्वामी' ऐसा न कहा होगा; इसके ऐसा 'विद्रसमाला' में (१९२६) बनाया है, उसी प्रजाम उस माश्याको वीरसेनने लिखना प्रारंम किया का (जिनगुणस्तोत्र) नामसे पूर्वपुराण' की प्रस्तावनामें था, उसे पूर्ण करने पहिले ही उनका स्वर्गवास हो (पृ०५) उल्लेख है । ( 'पूर्वपुराण'-न्यायतीर्थ जानेसे उसे जिनसबने पूर्व किया ऐसा मालूम पड़ता शान्तिराज शास्त्रीका बांटक अर्थसहित मुद्रण-मैसूर है। ऐसा हो तो वीरसेनको 'स्वामी' क्यों नहीं कहा ? १९)
दोनों अम्म अब तक मास नहीं। सविनसेको स्थानी' का लिये क्या बनेगुणसंस्तुति का अभिप्राय पार जिनेन्द्र पारण स सम्बन्ध में 'नवार्यसूलपाक्याला स्वामीति की स्तुति 'पाखाम्दष' काम्यसे है और वह उपलब्ध परिपव्यत' (गीतिसार) पचनका माधार देते है क्या सं० १९६६ में पकर प्रकाशित भी हो चुका (वि. १. मा. पृ. ११)। पर जिनसेनने तस्वार्थस्त्र पर है।
-सम्पादक]
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