SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 477
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५. अनेकान्त [वैसाख, वोर निर्वाण सं० २५६६ 'बनित' शब्दोंका अन्तर है। दर्शनविशुद्धयादिषोडशभावनास्तीर्थकरत्वस्य ।।११।। बह्रारंभपरिप्रहाद्या नारकाद्यायुष्कदेतवः ॥ ८॥ दर्शन विशुद्ध आदि सोलह भावनाएँ तीर्थकर 'बहु प्रारंभ-परिग्रह आदि नारक आदि भाय के नामक प्रास्त्रवकी हेतु हैं।' यहाँ 'यादि' शब्दसे आगमप्रमिद्धविनयसम्पइस सूत्र में दो जगह 'पाय' शब्दका प्रयोग करके बना आदि उन १५ भावनायीका सग्रह किया गया नारक श्रादि चारों ही गनियों के श्रास्रव हेतुअोंका एकत्र है जिनका उमास्वानिन अपने २४ वें सत्र में नामोसंग्रह किया गया है, परन्तु दूमरी गतियोंका एक एक ल्लेखपूर्वक सग्रह किया है। भी कारण सूचना एवं दूसरे कारणोको ग्रहण करनकी अत्मविकत्यानाद्या नीचेर्गोत्रस्य ॥ १२ ।। प्रेरणारूपम साथमें नहीं दिया है, इमसे यह सूत्र श्राव. प्रास्मश्लाघा (अपनी प्रशंसा) आदि नीचगोत्रके श्यकतासे कहीं अधिक संक्षिप्त और अजीबमा ही जान हतु है। पड़ता है । यह विषय मास्वातिने १५ मे २१ तक यहाँ 'पादि' शब्दमे परनिन्दा, मदगुणोंका उच्छा. सात सूत्रोंम वर्णित किया है। दन और श्रमद्गुणांका उद्भावन, ऐसे तीन हेतुश्रीका योगवक्रताधा अशुभानाम्नः ॥६॥ सग्रह किया गया जान पड़ता है,जो उमास्वातिके 'परात्म योगकी-मन वचनकायको - वक्रता आदि अशु- निन्दाप्रशंस' श्रादि सत्रम पर या उल्लेखित मिलते हैं। मनामके प्रास्त्रवतु हैं।' __ तद्वयत्ययो महनः ॥ १३॥ यहां 'श्राद्याः' पद बहुबननान्न होनेसे उसके द्वारा 'नीचगोत्रके हेतुओंम विपरीत-आत्मनिन्दादिक उंच गोत्रके हेतु है। उमास्वातिके २२वें सूत्रमें निर्दिष्ट एकमात्र 'विमवादन यह मूत्र उमास्यानिके 'तद्विपर्ययो नीचैप॒त्यनुस्मे(अन्यथा प्रवर्तन)' का ही ग्रहण नही किया जा सकता को चोत्तरस्य' सूत्रके आशयके माथ मिलना जुलता है। बल्कि दुसरे कारणोंका भी ग्रहण होना चाहिये । उन कारणोंमें सर्वार्थसिद्धिकारने भिध्यादशन, पैशून्य, दानादिविघ्नकरणमतरायस्य ॥ १४ ॥ 'दानादिमे विध्न करना अन्तराय कर्मके मानवका अस्थिरचित्तता. कूटमानतुलाकरणको भी बतलाया है। और लिखा है कि सूत्रमें प्रयुक्त हुए 'च' शब्दस यहां 'आदि' शब्दम लाभ, भोग, उपभोग, और उनका ग्रहण करना चाहिए। वोर्यका ग्रहण करना चाहिये । क्योंकि अन्तराय तद्वैपरीत्यं शुभस्य ॥१०॥ कर्मके दानान्तराय अदि पाँच ही भेद हैं | इस सूत्रम 'भाशुभ नामके पानवहेतुनोंमे विपरीत-योगकी उमास्वाति के सूत्रम मिर्फ 'दानादि' शब्द अधिक हैं । मरसता और अनुकूल प्रवर्तनादि-शुभ नामके मानव इति श्रीबृहत्प्रभाचन्द्रविरचिते तत्वार्थ सूत्रे षष्टोध्यायः ॥ ६॥ उमास्वातिका 'तद्विपरीतं शुभस्य' सूत्र और यह 'इस प्रकार श्रीवृहलाभाचन्द्र विरचित तत्वार्थसत्र दोनों एक ही हैं। - .. . सूत्रमें छठा अध्याय समास हुमा।' चाशुभ विकथ । । पष्टिमो।
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy