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________________ प्रमाचा तत्वार्थसूत्र 'नित्युपकरणे प्रन्येन्दिय , बन्ध्युपयोगौ मावेन्द्रियं यहाँ 'प्रादि' शब्दसे वैफियक, अहारक, तेजस १८, इन तीन सूत्रोंके श्राशयका समावेश है, परन्तु और कार्मण नामके चार शरीरोंके ग्रहणका संकेत है; द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रियके भेदोंको खोला नहीं। क्योंकि औदारिक-सहित शरीरोंके पांच ही भेद भागममें विप्रहाद्या गतयः ॥७॥ पाये जाते हैं। और इसलिये इस सत्रका वही प्राशय 'विग्रहा मावि गतियों है। है जो उमास्वातिके मौवारिकवैक्रिषिकाहारक यहाँ गतियोंकी कोई संख्या नहीं दी। विग्रहागति तैजसकामणानि शरीराषि" इस सत्र नं. ३६ का है। समारी जीवोंकी और अविग्रहा मुक्त जीवोंकी होती है। एकस्मिनात्मन्याचतुर्म्यः ॥१०॥ अविग्रहाको 'इषुगति' भी कहते हैं, और 'विग्रहा' के तीन ___एक जीवमें चार तक शरीर (एक साथ) होते है। भेद किये जाते हैं-१ पाणिमुक्ता २ लाङ्गलिका ३ यह सत्र उमास्वातिके "तदादीनिमाज्यानि युगपरे गोमूत्रिका | पार्षग्रंथोंमें इषुगति-सहित इन्हें गतिके चार कस्मिनाचतुर्थः" इस सत्रके साथ मिलता जुलता है, भेद गिनाये हैं। यदि इन चारोंका ही अभिप्राय यहाँ परन्तु इम सत्रमें 'तवादीनि' पदके द्वारा 'तेजस और होता तो हम सुत्रका कुछ दूमरा ही रूप होता । अतः कार्मण नामके दो शरीरोंको श्रादि लेकर' ऐमा जो विग्रहा, अविग्रहाके अतिरिन गतिके नरकगति, तियेच- कथन किया गया है और उसके द्वारा एक शरीर अलग गति देवगति,मनुष्यगति ऐसे जो चारभेद और भी किये नहीं होता ऐसा जो नियम किया गया है वह स्पष्ट जाते हैं उनका भी ममावेश इम सत्रमें हो सकता है । विधान इम सत्रमे उपलब्ध नहीं होता | उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रमें इस प्रकारका कोई अलग आहारकं प्रमत्त संयत स्यैव ॥११॥ सूत्र नहीं है-यो 'भविप्रहाजीवस्य, विग्रहवती च संसा 'माहारक प्रमत्तसंयतके ही होता है।' रिणः प्राक्चतुर्व्यः, एकसमयाऽविग्रहा' आदि सूत्रों में श्रादारक शरीरके लिये यह नियम है कि वह गतियोंका उल्लेख पाया ही जाता है। प्रमत्तमयत नामके छठे गुणस्थानवर्ती मुनिके ही होता ___ सचित्तादयो योनयः ॥ ८॥ है --अन्यके नहीं । उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रमें इसी 'सचित्त मादि योनियाँ हैं।' श्राशयका सूत्र नं ०४६ पर है। उसमें आहारक शरीरके यहाँ मत्रमें यद्यपि योनियोंकी संख्या नहीं दी; परंतु शुभ, विशुद्ध, अव्याधानि ऐसे नीन विशेषण दिये हैं। सचित्त योनिमे जिनका प्रारम्भ होता है उनकी मख्या मूल बान श्राहारक शरीरके स्वामिनत्वनिर्देशकी दोनोंमें आगममें नव है-ग्रंथप्रतिमें 'योनयः' पद पर E का एक ही है। श्वेताम्बरीय सूत्रपाठम 'प्रमत्तसंयनस्यैव' अंक भी दिया हुआ है । ऐसी हालतमें उमास्वातिके के स्थान पर 'चतुर्दशपूर्वधरस्यैव' पाठ है, और इसलिये "सचित-शीत संवृताः सेतरा मिश्राश्चैकशस्तथोनयः" वे लोग चौदह पूर्वधारी (श्रुतकेवली) मुनिके ही अाहाइस सूत्र नं ० ३२ का जो आशय है वही इस सूत्रका रक शरीरका होना बतलान हैं। श्राशय समझना चाहिये। मौदारिकादीनि शरीराणि ॥९॥ तीर्थेश देव-नारक भोगभुवोऽखंडायुषः ॥१२॥ 'पौदारिक मादि शरीर होते हैं।' अखंडायुषः ।
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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