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________________ वरिण .] हम और हमारा यह सारा संसार ऐसा ही माना जाये तब तो कोई भी किसी पापका करने पर भी बहुत ही सुहावने लगने लगे; तब मेरे भाग्यने वाला, अथवा अपराधी नहीं ठहरता है । तब तो राज्य ही तो वे सब पेड़ वहाँ उगाकर खड़े कर रखे थे। एक का सारा प्रबन्ध, अदालत और पुलिस, धर्मशास्त्र और पेड़ टुंड मुंड सूखा खड़ा था, वह मुझे अच्छा नहीं उपदेश सब ही व्यर्थ हो जाते है और बिल्कुल ही अँधा- लगा; तब मेरा कोई खोटा भाग्य जरूर था, जिसने धुंधी फैल जाती है। यह सूखा पेड़ खड़ा कर रखा था। फिर जहाँ मैं टेही यदि कोई यह कहने लगे कि सुख या दुख, जो बैठा वहाँ हजारों डांस मच्छर मुझे दिक्क करने लगे, कुछ भी मुझको होता है, वह सब मेरे ही अपने किये उनको भी मेरा खोटा भाग्य ही खींचकर लाया था । कर्मों का फल या मेरे अपने भाग्यका ही कराया होता लौटते समय रास्तेमें अनेक स्त्री पुरुष आते जाते दीख है, अकस्मात् कुछ नहीं होता । तो यह भी कहना होगा पड़े, जिनसे मन-बहलाव होता रहा; तब वे भी मेरे कि उम्र भर मैंने जो कुछ देखा, सूंघा, चखा, छुत्रा भाग्यके ही जोरसे वहाँ आ जा रहे थे। फिर भावादीमें या सुना, उससे थोड़ा या बहुत दुख-सुख मुझको श्राकर तो दोर डंगरों, स्त्री पुरुषों और बढ़े यच्चोंकी ज़रूर ही होता रहा है। इस वास्ते वे सब वस्तुएँ मेरे बहुतसी चहल पहल देखने में श्राई; तब यह सब दृश्य ही भाग्यसे संसारमें पैदा होती रही हैं। आज सुबह हो भी मेरे भाग्यने ही तो मेरे देखने के वास्ते जुटा रखे थे। जिस मोटरकी गड़गड़ाहटने मुझे जगा दिया वह मेरे एक कुत्ता भौंक भौंक कर मुझे डराने लगा और मेरा भाग्यसे ही चलकर उस समय यहाँ आई । उस समय पीछा भी करने लगा जिसको मैंने लाठीसे भगाया, मैं जाग तो गया परन्तु मुझे संदेह रहा कि सुबह हो उसको भी मेरे खोटे भाग्यने ही मेरे पीछे लगाया था। गई या नहीं। कुछ देर पीछे ही रेलकी सीटी सुनाई इसके बाद सूरज निकला तो मेरे भाग्यसे धूप फैली तो दी वह सदा ६ बजे श्राती है, इसलिये उससे मुझे मेरे भाग्यसे, फिर दिन भर जो मेरी आँखोंने देखा और सुबह होनेका यकीन होगया । तब मेरा भाग्य ही मेरा कानोंने सुना, संसारके मनुष्यों और पशु पक्षियोंकी वे सदेह दूर करने के लिये रेलको खींचकर लाया । उस सब क्रियायें भी मेरे ही भाग्यसे हुई; और केवल उस समय ठंडी हवा बड़ा श्रानन्द दे रही थी तब वह मी ही दिन क्या किन्तु उम्र भर जो कुछ मैंने देखा या मेरे भाग्यकी ही चलाई चल रही थी। मैं उठकर जंगल सुना, वह सब मेरे ही भाग्यसे होता रहा, मेंह बरसा को चल दिया, यस्तेमें लोगोंके घसे बोलने चालनेकी तो मेरे भाग्यसे, बादल गर्जा तो मेरे माग्यसे, बिजली आवाज़ आ रही थी। जिससे मेरा दिल बहलता था, चमकी तो मेरे भाग्यसे, पर्वा-पछवा हवा चली तो मेरे तब उनको भी मेरे भाग्यने ही जगाकर बोलचाल करा भाग्यसे, रातको अनन्तानन्त तारे निकले तो मेरे भाग्य रखी थी। रास्तेमें पेड़ों पर पक्षी तरह तरहकी बोलियाँ से। बोल रहे थे, जो बहुत प्यारी लगती थीं, तो उनको भी परसों रातको सोते सोते एकदम रोनेकी आवाज़ मेरे माग्यने ही यह बोलियाँ बोलनेके वास्ते कहीं कहाँसे आई जिससे मैं जाग गया, मालम हुआ कि कोई मर लाकर वहाँ इकट्ठा किया था। गया है, मैं बड़े मज़ेकी नींद सो रहा था, इस रोनेके कुछ रोशनी हो जाने पर रास्तेके दोनों तरफ्रके शोरसे मेरी नींद टूट गई, तब यह भी मानना पड़ेगा
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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