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________________ १२० अनेकान्त [श्राडण, वीरनिर्वाण सं०२४६६ अहिंसाकी साधना वीरकं शस्त्र के रूपमें करनी है। ही नहीं था, उन्हें कानून-भंग बतलाया। उनसे बान बहुन बड़ी है। हम यह न समझे कि हमें मुझे कहना चाहिये था कि आज तक सरकार के जेल जानकी शक्ति बढ़ानी है। हमे तो यह बताना दण्ड के भयसे जो किया, वह पहले अपनी इच्छासे है कि रचनात्मक कार्यक्रम स्वराज्यका अविभाज्य करो। तब तुम्हें कानून-भंगका अधिकार प्राप्त होगा। अग है । हमने यह नहीं समझा कि चरखा हमें ईश्वरने मुझे ही क्यों चुना? स्वराज्य देगा । 'गाँधी कहना है इसलिए चरखा ___ वह सारी अधुरी अहिंसा थी। मेरा उसमें चला लो, उसमे गरीबको थोड़ा मा धन मिलता . डरपोकपव था। मैं अपने साथियोंको नाराज नहीं है' यही हमारी वृत्ति रही । अब आपमं यह करना चाहता था। साथियोंके डरसे कुछ करनेमे सिद्ध करने की शक्ति आनी चाहिये कि रचनात्मक कार्य ही स्वराज्य दे सकता है। इसका मतलब यह हिचकना हिंसा है । उसमे असत्य भरा है। मोती लालजी, बल्लभभाई और दूसरे लोग नाराज हो नही है कि आप रोज थोड़ासा, कात लें, दो चार जायंगे; यह डर मुझं क्यों रहा ? ये सब मेरी त्रुटियाँ मुसलमानोंके साथ दोस्ती करलं, अछूनोंमें मिलने थीं। उन्हें मैं तटस्थ होकर देखता हूँ। उनका जुलन लगें और समझ कि अब हम स्वराज्यकी प्रत्यक्ष दर्शन करता हूँ; क्योंकि मुझम अनासक्ति लड़ाईके लायक बन गये । आपको तो यही मानना चाहिये कि रचनात्मक कार्यक्रममे ही स्वर ज्य देने है। उन त्रुटियोंके लिये न तो मुझे दुख है, न पश्चाताप । जिस प्रकार मैं अपनी सफलता और की शक्ति है। रचनात्मक कार्यक्रमके बाद लड़ाई करनी है । ऐसी मान्यता आपकी नहीं हो सकती। शक्ति परमात्माकी ही देन समझता हूँ, उमीको अर्पण करता हूँ, उसी प्रकार अपने दोष भी उम कार्य-क्रममे ही स्वगज्यकी ताक़त है। भगवानकं ही चरणों में रखता हूँ । ईश्वरने मुझ मैंने उल्टा प्रयोग कराया जैसे अपूर्ण मनुष्यको इतने बड़े प्रयोगके लिये क्यों मैंने अहिंसाका प्रयोग इस देशमें उलटा किया। चना ? मैं अहंकारसे नहीं कहता । लेकिन मुझे दरअसल तो यह चाहिये था कि रचनात्मक कार्य विश्वास है कि परमात्माको गरीबांमे कुछ काम क्रमसे शुरू करता। लेकिन मैंने पहले मविनय भंग लेना था, इसलिये उमने मुझे चुन लिया। मुझसे और असहयोगका, जेल जानका कार्यक्रम रक्खा। मैंने लोगोंको यह नहीं समझाया कि ये तो बाद में अधिक पूर्ण पुरुष होता तो शायद इतना काम न आने वाली चीज है । इमलिये वे आन्दोलन कर सकना । पूर्ण मनुष्यको हिन्दुस्तानी शायद कामयाब न हो सके। पहचान भी न सकता । वह बेचारा विरक्त होकर गुफामे चला जाता । इसलिए ईश्वरन मुझ जैसे कानून-भंगका अधिकार अशक और अपूर्ण मनुष्यको ही इस देशके लायक मुझ नडियादका किस्मा याद आता है। समझा । अब मेरे बाद जो श्रायंगा, वह पूर्ण पुरुष रौलेट एक्ट सत्याग्रहके वक्तकी बान है । वहीं मैंन होगा। मैं कहता यह हूं कि वह पूर्ण पुरुष आप कबूल कर लिया था कि मेरी हिमालय जैसी भूल बनें । मेरी अपूर्णताओंको पूरा करें। हुई । जिन्होंने ज्ञानपूर्वक कानूनका पालन किया
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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