SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 333
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [माघ, वीर-निर्वाण सं०५ में क्रमशः नं० १०, ६१, ११७, १२८, १४७, २३०, पंचसंग्रह और कर्मकाण्ड २१३, २३६, २४०, २७४, ४३७, १४६. ५३३, ५३४ गोम्मटसार कर्मकाण्ड, कर्म विषयक साहित्यका एक पर थोड़ेसे पाठ भेदके साथ उपलब्ध होती है। अपर्व ग्रन्थ है। इसमें बंध, उदय, उदीरणा और इनके सिवाय, एक गाथा जीवकाण्डमें पंचसंग्रह कर्मोकी सत्ताका बहुत ही अच्छे तरीके पर वर्णन दिया की ऐसी भी पाई जाती है जो अधिक पाठ भेदको लिये गया है । साथ ही, कर्म क्या है, उनके कितने भेद हैं हुए है-उसका पर्वा तो मिलता है परन्तु उत्तरार्ध और उनका जीवके साथ कैसा संबंध होता है। किस नहीं मिलता । वह बदला हुआ है। किन्तु धवलाके जीवके कितनी प्रकृतियोंका बंध और उदयादि होते हैं। मुद्रित अंशमें वह पंचसंग्रहके अनुसार ही उपलब्ध इन सबका विवेचन इसमें किया गया है। ग्रंथम ६ होती है। वह इस प्रकार है:-- अधिकार दिये हैं और मय प्रशस्तिके गाथात्रोंकी कुल महिमुहनियमियबोहणमाभिणियोहियमणिदइंदियनं । संख्या ६७२ दी है । जब तक मेरे देखने में 'प्राकृत पंच संग्रह' नहीं पाया था उस समय तक मेरा यह खयाल बहु उग्गहाइणखलु क्यछत्तीसा-ति-सय-भेयं ॥ --प्रा. पंचसं०, १,१२१ था कि कर्म प्रकृतियोंका इस प्रकारका बटवारा कर देने. वाला कोई अन्य प्राचीन कर्म ग्रन्थ भी श्राचार्य नेमिमहिमुहणिपणियबोहण माभिणियोहियमणिदईदियजम् चन्द्र के सामने रहा होगा, जिमपरसे उन्होंने संक्षिप्तरूपसे भवगहईहावायाधारणगा होति पत्तेयं ॥ गोम्मटसार कर्मकाँडका संकलन किया है। यद्यपि पंच-गो० जी०, ३०५ संग्रहका तुलनात्मक अध्ययन करनेमे मालूम होता है मूलाचार और जीवकाण्ड कि कर्मकांडकी रचनामे कुछ क्लिष्टता अागई है। परंतु प्राकृत पचमंग्रहमें वह मरलता बनी हुई है, इमलिये मूलाचार दि. जैन ममाजका एक मान्य ग्रन्थ है। उसके द्वाग अर्थ-बोध करने मे कोई कठिनाई मालूम इमके विषयमें, मैं एक लेग्य 'अनेकान्त' की द्वितीय नहीं होती। दूसरी विशेषना उममें यह भी है कि जिस वर्षकी किरण न. ५ में निग्य चका हूँ । इमी से यहाँ बातको पनमग्रटकार गाथाबद्ध करनेमें कठिनाई ममझते उसके विषयमं अधिक कुछ नहीं लिग्वा नाता। उसकी थे या उससे अर्थ बोध होने में कुछ क्लिष्टताका अनुभव कुछ गाथा भी गोम्मटमार जीवकाण्डमें प्रायः ज्योंकी करते थे उमे उन्होंने प्राकृत गद्यम दे दिया है और त्यो रूपम उपलब्ध होती हैं। अर्थात् मूलाचारकी साथमें अव मंष्ठि भी दे दी है, जिममे जिज्ञासुओंको गाथाएँ नं० २२१, २२३, २२६, ३२८, ३१५, ३१६, उसके ममझने में बहुन कुछ आसानी होगई है। फिर १०३४, १०३५, १०३६, १.३७, १०३८, १०३६, भी गोम्मटमार कर्मकाण्ड में कितना ही वर्णन पंचमंग्रह १०४०, ११०२, ११०३, ११५८,११५१ गोम्मटमार मे भिन्न पाया जाता है। उदाहरण के लिये इगिनी और जीवकाण्डमें क्रमशः न० ११३, ११४, ८६, २२१, प्रायोपगमन मन्याम श्रादिका वर्णन नथा कर्मों का नो२२५, २२५. २५, ३६, ३७, ३८, ४०, ४१ १२,८१, कर्मवाला कथन पंचभंग्रहमे नहीं है । इसी तरह कद पी८२, ४२६, ४२६, पर पाई जाती है। घात या अकाल मरण के कारणोंको सूचित करनेवाली
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy