________________
प्रो अगदीशचन्द्र और उसकी समीचा
से सकता है कि अनी जिम मान्यता अधक धारणाको प्रो० साहब सम्पादकको विचारक नहीं मानते 10 उम श्राप सहन ही दूसरे विद्वानोंके गले उतारना चाहते थे विद्वानों में परिगणित नहीं करते जिन्हें आपने अपने लेख उसमें उक्त 'विचारणा के कारण स्पष्ट बाधाका उप. पर विचार करने के लिये आमन्त्रित किया है । अथवा स्थित होना आपको जंच गया हो और यही बात उसे अपने लेखका वह पाठक तक भी नहीं समझते आपकी अप्रमत्र ताका कारण बन गई हो । अस्तु, जिमके विचाराऽधिकारको अपने लेखके उक्त आपके वे अप्रसन्नता-सूचक वाक्य, जिन्हें लेखके साथ वाक्यमें स्वयं स्वीकार किया है । यदि ऐसा कुछ संगत अथवा उसका कोई विषय न होने पर भी आपको भी नहीं है तो फिर 'सम्पादकीय विचारणा' पर अपनी चित्तवृत्ति के न रोक सकनेके कारण देने पड़े है उक्त आपत्ति और अप्रसन्नता कैसी ? अथवा
और साथ ही यह लिखना पड़ा है कि “यह इस लेखका सम्पादकके विचाराधिकार पर इस प्रकारका नियन्त्रण विषय नहीं है", इस प्रकार हैं:
कैसा कि वह किसीके लेख पर विचार न करके स्वतन्त्र "शायद पं० जगलकिशोरीको यह बात न अँची, लेख लिखा करे और यदि इनमेसे कोई बात प्रो. और उन्होंने मेरे लेखके अन्तमें एक लम्बी-चौड़ी टिप्पणी साहबके ध्यानमें रही है तो कहना होगा कि आपके लगा दी। हमारी ममझसे इस तरहके रिमर्च-सम्बन्धी उस लेखका ध्येय स्वतन्त्र विचार नहीं था-विचारका जो विवादास्पद विषय है, उन पर पाठकोंको कुछ समय मात्र आडम्बर अथवा प्रदर्शन था । और इसलिये तब के लिये स्वतन्त्ररूपसे विचार करने देना चाहिये। श्रापकी प्रसन्नताका कारण यही हो सकता है जिसकी सम्पादकको यदि कुछ लिखना ही इष्ट हो तो वह स्वतंत्र सम्भावनाको ऊपर कल्पना कौगई है । ऐसे कारणका लेख के रूपमें भी लिखा जासकता है । साथ ही, यह होना निःमन्देह एक विचारक तथा विचारके लिये श्रावश्यकता नहीं कि लेखक सम्पादकके विचारोंसे दूमरे विद्वानोंको श्रामत्रित करने वालेके लिए बड़ी सर्वथा सहमत ही हो।"
ही लजाको बात होगी । बाकी यह बात कब किसने इन वाक्यों परसे जहाँ यह स्पष्ट है कि प्रो० साहब आवश्यक बतलाई है कि "लेखक सम्मादकके विचारोंसे को उक्त 'सम्पादकीय विचारणा' नागवार (अरुचिकर) सर्वथा सहमत ही हो" ! जिसके निषेधको प्रो० साहकको मालूम हुई है वहाँ यह स्पष्ट नहीं है कि उमसे पाठकोंके ज़रूरत पड़ी है, सो कुछ भी मालम नहीं हो सका । स्वतन्त्ररूपसे विचार करने में कौनसी बाधा उपस्थित हो यदि ऐसी कोई बात आवश्यक हो तो सम्पादक ऐसे गई है--उसने तो पाठकोंके विचारक्षेत्रको बढ़ाया है लेखको छापे ही क्यों ? और क्यों टीका-टिप्पणी अथवा
और उनके सामने समुचित विचारमें सहायक और अधिक नोट लगानेका परिभम उठाए ? परन्तु बात ऐसी नहीं सामग्री रक्खी है। क्या समुचितक्चिारमें सहायक अधिक है। वास्तबमें जब किसी सावधान सम्पादकको यह बात सामग्रीका जुटाया जाना अथवा जानकार विद्वानोंके जंच जाती है कि लेखका अमुक अंश भ्रममूलक है द्वारा विचारका जल्दी प्रारम्भ कर दिया जाना रिसर्च और वह जनतामें किसी भारी भ्रान्ति अथवा ग़लतसम्बन्धी अथवा किसी भी विवादास्पद विषयके विचारमें फहमीको फैलाने वाला है तो वह अपने पाठकों को कोई बाधा उत्पन्न करम ! कदापि नहीं । तब क्या उससे सावधान कर देना अपना कर्तव्य सममता है.