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________________ तामिल भाषाका जैनसाहित्य [खक-पोकेसर ए. पावती एम. ए. पाई. ई. एस, मिसिपल कुंभ कोषम् काग] . [अनुवादक-पं० सुमेरुवन्न बैन दिवाकर पावतीर्थ शासी, बी. ए. एसएस. बी. सिवनी ] नामिल साहित्य पर सरसरी निगाह डालनेसे बीचमें था । ऋग्वेद संहितामें भी हम ऋषभ तथा "" यह बात विदित होगी कि वह प्रारंभिक अरिष्टनेमिका उल्लेख पाते हैं, जिनमें पहले तो कालसे ही जैनधर्म और जैन-संस्कृतिसे प्रभावित जैनियोंके आदि तीर्थकर हैं और दूसरे बाबीसवें या। यह बात सुप्रसिद्ध है कि जैनधर्म उत्तर तीर्थकर जो श्रीकृष्ण के चचेरे भाई थे। भारतमें ही उदित हुआ था, अतएव उसका आर्य जब हम संहिताओंके कालको छोड़कर प्राण संस्कृतिसे सम्बन्ध होना चाहिये । जैन लोग कब ग्रंथोंके कालमें प्रवेश करते हैं, सब हमें आर्य लोगों तो दक्षिणको गए तथा किस भांति उनका मूल के इस पृथकरणके विषयमें और भी मनोरंजक तामिन-वासियोंसे सम्बन्ध हुआ, ये समस्याएँ बातें मिलती हैं। इस समय तक आर्य लोग गंगा ऐसी हैं जो अब तक भी अन्धकारमें हैं । किन्तु को घाटी तक चले गए थे और उन्होंने राज्य इन प्रश्नों पर कुछ प्रकाश डाला जा सकता है, स्थापित किए थे तथा काशी, कौशल, विदेह और यदि हम इस बात पर अपना ध्यान दौड़ावें कि मगध देशोंमें अपना स्थायी निवास बनाया था। सिंधुकी घाटीमें भार्योकी अवस्थितिके आदिकालसे इन देशों में रहने वाले मार्य लोग प्राव: पौर्वात्य ही उन आर्य लोगोंमें एक ऐसा वर्ग था जो बलि- आर्य कहे जाते थे। ये सिंधु नदीकी सराई सम्बन्धी विधानका विरोधी था और जो भहिंसाके सिद्धांत कुल पांचाल देशोंमें बसने वाले पाश्चिमात्य मार्यों का समर्थक था। ऋग्मंदके मंत्रोंमें भी इस बातको से भिन्न थे । ये लोग पूर्वके प्रायोको अपनी प्रमाणित करने योग्य साक्षी विद्यमान है। ब्राह्मण अपेक्षा हीन समझ कर हीन दृष्टिसे देखते थे, तरुण शुनःसैफ की-जो विश्वामित्रके द्वारा बलि कारण उनने कुरु पांचालीय भायोंकी हस्ताका किये जानेसे मुक्त किया गया था, कथा एक मह- परित्याग किया था । पूर्वीय भाषाओं के बेचा यह स्व पूर्ण बात है। राजर्षि विश्वामित्र तथा वशिष्टका सुझाते हैं कि संभवतः गंगाकी तसई सम्बन्धी 'द्वन्तु संभवतः उस महान विरोधके प्रारंभको पूर्वीय भार्य माक्रमणकारी उन मायोकी प्रारंभिक बताता है जो मामण ऋषियों के द्वारा संचालितः बहरको सूचित करते हैं, जो सिधुकी सगाई बसी बलिदान-विधायक सम्प्रदाय तथा बीर-क्षत्रियों हुई आक्रमणकारी पाश्चिमात्य जातियोंसे पूर्वदिशा द्वारा संचालित बनिविरोपी महिसा सिद्धान्तके की चोर भगा दिए गए थे। इस प्रकार विचारों
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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