________________
अनेकान्त
[भाद्रपद, बीर निर्वाण सं०२४१६
वैयाकरणके अधिपति थे, गुणों की खानि थे, ताकिकचकनी थे, और प्रवाविरूपी गोंके लिये सिंहसमान थे।
श्रोवीरनेन इत्यात्त-भट्टारकपृथुप्रयः । स नः पुनातु पूतारमा वादिवृन्दारको मुनिः। लोकवित्वं कवित्वं च स्थितं भट्टारके द्वयं । वाग्मिता वाग्मिनो यस्य वाचा वाचस्पतेरपि । सिद्धान्तोपनिबन्धानां विधातुर्मद्गुरोश्चिरम् । मन्मनः सरसि स्थेयान्मृदुपादकुशेशयम् ॥ धवला भारती तस्य कोर्ति च शुचि-निर्मलाम् । धवलीकृतनिःशेषभुवनां तां नमाम्यहम् ।।
-आदिपुराणे, श्रीजिनसेनाचार्यः जो भटारककी बहुत बड़ी ख्यातिको प्राप्त थे वे वादिशिरोमणि और पवित्रात्मा श्रीवीरसेन मुनि हमें पवित्र करो-हमारे हृदय में निवास कर पापोंसे हमारी रक्षा करो।
जिनकी वाणीसे वागमी बृहस्पतिकी वाशीभी पराजित होती थी उन भट्टारक वीरसेनमें लौकिक-विज्ञता और कविता दोनों गुण थे।
सिद्धान्तागमोंके उपनिबन्धों-धवनादि ग्रन्थों के विधाता श्री वीरसेन गुरुके कोमल चरण-कमल मेरे हरय-सरोवरमें चिरकाल तक स्थिर रहें।
वीरसेनकी धवला भारती-धवला-टीकोकित सरस्वती अथवा विशुद्ध पाणी-और चन्द्रमाके समान निर्मल कीर्तिकी, जिसने अपने प्रकाशसे इस सारे संसारको धवलित कर दिया है, मैं वन्दना करता हूँ।
तत्र वित्रासिताशेष-प्रवादि-मद-वारणः ।
वीर-संनापणी:रमेनभट्टारको बभौ ।।-उत्तरपुराणे, गुणभद्रः मूलसंधान्तर्गत सेनान्वयमें वीरसेनाके अग्रणी (नेता) वीरसेन भट्टारक हुए हैं, जिन्होंने सम्पूर्ण प्रवादि. रूपी मस्त हाथियोंको परास्त किया था ।
तदन्ववाये विदुषांवरिष्ठः स्याद्वादनिष्ठः सकलागमज्ञः । श्रोवीरसेनोऽजनि तार्किक श्रीः प्रध्वस्तरागादिसमस्तदोषः ।। यस्य वाचा प्रसादेन ह्यमेयं भुवनत्रयम् ॥
मासीदष्टांगनैमित्तज्ञानरूपं विदा वरम् ॥ -विक्रान्तकौरवे, हस्तिमा: स्वामी समन्तभद्रके वंशमें विद्वानों में श्रेष्ठ श्री वीरसेनाचार्य हुए हैं, जो कि स्याद्वाद पर अपना दृढ़ निश्चय एवं प्राधार रखने वाले थे, तार्किकोंकी शोभा थे और रागादि सम्पूर्ण दोषोंका विध्वंस करने वाले थे। तथा जिनके वचनोंके प्रसादसे यह अमित भुवनत्रय विद्वानों के लिये भष्टा निमित्तज्ञानका अच्छा विषय हो गया था।