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________________ अनेकान्त [फाल्गुन बीर-निर्वाण सं० २४॥ की लालसा हुई । चुकि वह सर्वशक्तिमान् सर्वक्ष, से भी जिन कार्योंका निर्माण किया जाता है, उनमें और व्यापक था; इमलिये उसने स्वेच्छानुसार तांबा श्रादि-जिस मूल वस्तुसे कार्य पैदा हुआ तमाम जड़ी और चेतन-जगत्-पर्वत, समुद्र, नद- है-बराबर अन्वयरूपसे पाया जाता है । उपादान नदी, भूखण्ड, बनखण्ड, देश, द्वीप और पशु-पक्षी, कारण अपनी पर्यायों-हालतोंको तो छोड़ देता है, कीड़ा-मकोड़ा, देव, मनुष्य आदिका निर्माण पर वह खुद कभी विनष्ट नहीं होता, उमसे जिन किया। इस कार्य के निर्माणमें उसे किमी भी अन्य कार्योंकी सृष्टि की जाती है, उन कार्योंमें उपादानके साधन-उपादानादि कारणोंकी-जरूरत नहीं समस्त गुण अविवाद रूपसे पाये जाते हैं। हुई; अर्थात् स्वयं ईश्वर ही उपादान और निमित्त ईश्वरवादी लोग जगत-कार्यकी रचनामें ईश्वरकारण था। ___ को ही उपादान वा निमित्त कारण बतलाते हैं, पर पाठको! आप लोग जानते ही होंगे कि प्रत्येक युक्ति और बुद्धिकी कसौटी पर कमनेसे यह बात कार्यकै करनेमें उपादान-कारण और निमित्त विल्कुल झूठ माबित होती है। क्योंकि मैं पहले ही कारणकी आवश्यकता हुआ करती है। जो अपनी लिग्व चका हूँ कि कार्य में उसके उपादानके समस्त हस्ती वर्तमान पर्याय-मिटाकर खुद कार्य रूपमें गुण पाये जाते हैं । अब सोचिये, यदि जगत-कार्य तब्दील हो जाय उसे उपादान कारण कहते हैं; का उपादान कारण ईश्वर है, तो लाजमी तौरपर और जो कार्य करने में सहायक हो उसे निमित्त ईश्वर के मर्वज्ञत्व, व्यापकत्व, सर्वशक्तिमत्वादि या सहायक कारण कहते हैं। जैसे, रोटी बनानेके गण जगतमें पाये जाना चाहिये। परन्तु संसारमें लिये भाटा, रसोइया, पानी आग श्रादिकी श्राव- जितने कार्य नजर आते हैं, उनमें ईश्वरके गुणोंश्यकता हुआ करती है; गेटी कार्यमें आटा उपा- का खोजने पर भी सद्भाव नहीं मिलता, फिर न दान कारण है; पाटा अपनी वर्तमान चूर्ण पर्याय- जाने किम आधारके बल पर ईश्वरवादी ईश्वरको को छोड़कर पानी आदिके महयोग-मम्मिश्रणसे जगतका उपादान कारण बतलाकर उसे कलंकित पिंडादि प्राकृतियोंको धारण करता हुआ, रसोइया करते हैं । भले ही अन्धश्रद्धालु ईश्वरको वैसा माके हाथोंकी चपेट वा चकला-बेलनकी सहायतासे नंते रहे, परन्तु जिनके पास समझने-तर्क करनेकी चपटा तथा गोलाकारमें परिवर्तित होकर अग्निपर बुद्धि है, ने तो इसे निरी युक्तिशून्य कपोल-कल्पना सेकनेसे रोटी-कार्यमें बदल जाता है, पर वह अपने कहेंगे। रूप-रसादि गुणोंको नहीं छोड़ता। स्वर्णसे कड़ा, अन्य ईश्वरवादी लोग ईश्वरको जगतका बाली, कुण्डल आदि अनेक भूषण बनाये जाते उपादान कारण न मान, निमित्त कारण बतलाते है परन्तु सोना अपने स्वर्णत्व, पीतत्वादि स्वरूपको है। उनका कहना है कि सृष्टि रचनाके पहले कभी नहीं छोड़ता, केवल अपनी पिंड, कुण्डल ब्रह्मांडमें ईश्वर, जीव और प्रकृति तीन ही पदार्थ भादि पर्यायों और प्राकृतियोंका ही परित्याग थे। ईश्वरने स्वेच्छानुसार जीव और प्रकृतिसे करता है। तांबा, पीतल, लोहा, मट्टी, काष्ठ भादि चेतन तथा अचेतन जगत्की उत्पति की। जिस
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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