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________________ गोम्मटसार एक संग्रह ग्रंथ परिवहन स्वभावमार्दवाळवं च मानुषस्थ'। इस पर था, जिसे दिगम्बर लोग न मानते थे, लेकिन इससे शंका करते हुए राजवार्तिककार कहते हैं-"एक यह नहीं कहा जा सकता कि वह सूबपाठ क्वार्थायोगीकरवमिति पेडोत्तरापेषत्वावर-पान्मतं एको धिगम-भाष्यका ही था । संभव है वह अन्य कोई दूसरा चौगों या-पपारंमपरिग्रहत्वं स्वभावमावं ही पाठ रहा हो। मानुपस्यति । तर, विकार उत्तरापेतत्वात् ।" यह निर्विवाद है कि अकलकके सामने पज्यपादकी इत्यादि रूपमें राजवार्तिकमें तत्त्वार्थ सूत्रोंके पाठ- सर्वार्थसिद्धि मौजूद थी । तथा उन्होंने सर्वार्थसिद्धिको भेदका अनेक स्थलों पर उल्लेख किया गया है। इससे सामने रखकर ही राजवार्तिकको लिखा है । निम्न यह बात स्पष्ट है कि उनके सामने कोई दूसरा पाठ लिखित तुलनात्मक उदाहरणोंसे हम यह बताना चाहते अवश्य था, जिसे अकलंकने स्वीकार नहीं किया। हैं कि राजवार्तिककारके समक्ष सर्वार्थसिद्धि तो थी ही, (२, यह शंका हो सकती है कि सूत्रपाठमें भेद लेकिन उमास्वाति के तत्त्वार्थाधिगमभाष्यका भी उन्होंने होनेका जो अकलंकने उल्लेख किया है, उससे यही काफी उपयोग किया है:सिद्ध होता है कि उनके सामने कोई दूसरा सूत्रपाठ (क) अपि च तंत्रांतरीया असंख्येयेषु । सर्वार्थसिद्धि में इस । “संवि हि केचितंत्रांतरीवा अनंतेषु खोकधातुवसंप्वख्येया पृथिवीमस्तारा इत्या : स्थान पर असंख्य खोकधातुम्वनंताः पृथिवीप्रस्तारा हत्यज्यवसिताः । तत्प्रतिषेधार्थ च सप्तग्रहा- लोकधातु आदिकी भसिताः।"-गजवातिक (११) मिति।" 'कोई चर्चा नहीं की -तत्त्वार्थ० भाष्य (३-१) 'गई । यहाँ मिर्फ इतना ही कहा गया है "सप्ताहणं सं. ख्यान्तरनिवृत्यर्थ ।" . -मार्ग० (३ :) ! (ख) "तत्रासवैर्यथोक्तनारकसंवर्तनी- । सवामिद्धि में इम प्रयोत्पादः क कषामित्यत्रोच्यतेयैः कर्मभिरसंशिनः प्रथमायामुत्पयन्ते । सम्बन्धर्म कुछ नहीं : प्रथमायामसंशिन जुम्पयंते । प्रथमासरीसपा दयोरादितः प्रथमद्वितीययोः एवं कहा गया है। द्विनीययोः सरीसृपाः । निसृषु परिणः । दिनीययोः सर्गमण पक्षिणस्तिसृषु । सिंहाश्चतसृषु । उरगाः चतमपरगाः । पंचसु सिंहाः । षट्सु पंचसु । नियः षट्सु । मस्स्थमनुष्याः । बियः । सासु मत्स्यमनुष्याः। म सप्तस्विति । न तु देवा नारका वा नरके ! देवनारका वा नरकेषु उत्पते ।" पपत्ति प्राप्नुवंति ।" -ज० (३-1) -त.भाध्य (३-८.
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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