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________________ हरिभारि २८० - - हरिभद्रसूरिका नाम प्रथम श्रेणी में जिसनेके योग्य है। सहरण स्थान है। वैसा ही महत्त्वपूर्ण और भावस्थान जैन-समाजमें हरिभद्रसूरि नाम वाले अनेक जैना- साहित्य क्षेत्रमें एवं मुख्यतः न्याय-साहित्य में भर चार्य और ग्रंथकार है। किन्तु प्रस्तुत हरिभद्र के हैं, जो अकलंकदेव और भाचार्य हरिभद्रका समझना चाहिये। कि माकिनी महतरासनुके नामसे प्रसिद्ध हैं। ये ही भावार्य तो यह है कि इनके जीवन चरित्र तकमें कुछ भाचार्य शेष अन्य सभी हरिभद्रोंकी अपेक्षासे गुणोंमें, हेरफेरके साथ काफी साम्यता है। इन दोनोंने ही ग्रंथ-रचनाओं में और जिन-शासनको प्रभावना करनेमें साहित्य-क्षेत्र में ऐसी मौलिकता प्रदान की कि जिससे अद्वितीय है। इनका काल श्री जिनविजयनीने ई० उममें सजीवना, स्फूर्ति, नवीनता और विशेषता पाई। सन् ७०० से ७७० नक अर्थात् विक्रम संवत् ७५७ से इस मौलिकताने ही भागे चलकर भारतीय धार्मिक २२७ तक का निश्चित किया है, जिसे जैनसाहिन्यके क्षेत्रमे जैन धर्मको पुनः एक जीवित एवं समर्थ धर्म प्रगाढ़ अध्येता स्वर्गीय प्रोफेसर हरमन याकोबीने भी बनाकर उसे "जन-साधारणके हितकारी धर्म" के रूपमें स्वीकार किया है, और जो कि अन्ततोगत्वा सर्वमान्य परिणत कर दिया । कुछ समय पश्चात् ही जैनधर्म पुनः भी हो चुका है। हरिभद्र नामक जितने भी जैन साहि- राजधर्म हो उठा और इस प्रभावका ही यह फल था स्यकार हुए हैं, उनमेंमे चरित्र-नायक प्रस्तुत हरिभद्र ही सर्वप्रथम हरिभद्र है। पाल सरीखी व्यक्तियाँ जैन समाजमें अवतीर्ण हुई। ___ दार्शनिक, प्राध्यात्मिक, माहित्यिक और सामाजिक इन्हीं प्राचार्यों द्वारा विरचित साहित्य के प्रभावमं दक्षिण पादिरूप तत्कालीन भारतीय संस्कृतिको तथा चारि- भारत, गुजरात तथा उपके आसपासके प्रदेशोंमें जैन त्रिक एवं नैतिक स्थितिक धरातलको और भी अधिक धर्म, जैन साहित्य और जैनसमाज ममर्थ एवं भनेक ऊंचा उठानेके ध्येयमे प्राचार्य हरिभन्न सूरिने मामा- सद्गुणों से युक्त एक उच कोटिकी धार्मिक और नैतिक जिक प्रवाह और साहित्य-धाराको मोरकर नवीनही संस्कृतिक रूपमै पुनः प्रख्यातःहो उठा। इन्हीं कारणों दिशाकी ओर अभिमुख कर दिया । मामाजिक-विकृति- पर दृष्टिपात करने एवं सत्कालीन परिस्थितियोंका के प्रति कठोर रुख धारण किया और उसकी कड़ी समा- विश्लंपण करने में यह भन्ने प्रकार सिद्ध हो जाता है लोचना की। विरोध-जन्य कठिनाइयोंका वीरना पर्वक कि हरिभद्रमूरि एक युग-प्रधान और युग-निर्माता सामना किया, किन्तु सत्य मार्गसे ज़रा भी विचलित प्राचार्य थे । नहीं हुए। यही कारण था कि जिसमे समाजमें पुन: प्राचार-क्षेत्र, विचार-क्षेत्र और साडिग्य-क्षेत्र में इनके स्वस्थता प्रदायक नवीनता भाई और भगवान महावीर द्वारा नियोजित मौलिकता, नवीनता, और अनेकविध स्वामीके प्राचार-क्षेत्रके प्रति पुनः जननाकी श्रद्धा और विशेषनाको देग्वका झटिति मुंहमे यह निकल पड़ता है भक्ति बढ़ी। कि प्राचार्य हरिभद्र कसिकान मुधर्मा म्वामी हैं । जिस प्रकार प्राचार्य सिद्धसेन दिवाकरका और निबंधके पागेकं भागमे पाठकोंको यह शान होजायगा स्वामी समन्तभद्रका जिनशासनको प्रभावना करनेमें कि यह कथन अनिरंजिन केवल काम्यान्मक वाक्य ही एवं जैन-साहित्यकी धारामें विशेषता प्रदान करनेमें नहीं है, बक्कि तथ्यांशको लिये हुए है।
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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