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अनेकान्त
वर्ष ३, किरण १
छुरा लेकर अभयकुमारने कहा- 'जब दोनों ही भरे स्वरमें—'बालककी माँ वसुमित्रा है ! उसीके पास इसकी माँ हैं तो न्याय कहता है-दोनोंको बराबर- मातृत्व है ! ममता, मोह, और हार्दिकता सभी कुछ बराबर अधिकार है ! उसी न्यायकी दुहाई देकर इसके प्रमाण हैं।! ....वमुदत्ता प्रेमकी श्राड़में धनकी अभिमैं बच्चे के दो-टुकड़े कर, दोनोंको दे देना चाहता हूँ ! लाघिणीहै-कोरा दम्भ है उमका! वह मातृत्वकी पवित्रकहो, ठीक है न ?'-एक भेद-भरी निगाहस चारों ओर महानतासे कोमों दूर है !...विपुल-विभूतिको ठुकरा कर देखा !
___ भी जो बालकका जीवन सुरक्षित चाहता है, वही ___ ...और उत्तरकी प्रतीक्षा किए बिना ही छुरा बालक आदर्श मातृत्व है !' के शरीर पर रखने लगे कि...!
उपस्थित जनता न्याय शैलीकी भूरि-भूरि प्रशंसा ___ 'न मारो, बच्चेको !... उभीका पुत्र है, मैं तो करने लगी! अभयकुमार पर सभासदोंकी श्रद्धा-सी व्यर्थ ही झगड़ रही थी !...मैं कुछ नहीं कहती-कुछ उमड़ पड़ी ! नहीं चाहती, पर बच्चेको न मारो ! फूल-मा बच्चा...!' मुँहसे अनायास निकला-'वाह !'....
अविरल-श्राँसुत्रोंकी धारा बहाती हुई वसुमित्रा * * पगलीकी तरह दौड़ी ! वह इस समय अपने 'श्रापे' में न थी ! नहीं जानती थी-कहाँ है ? कौन है ? क्या कर इम के बादरही है ?...
बस, अब इतनी ही बात कहना और शेष है कि ___और वसुदत्ता ?-अपने स्थान पर शलीके लहेकी मातृत्वको मिश्री-मा मधुर कल-कण्ठ-मा-'माँ' कहने भांति अचल खड़ी थी ! जैसे प्रतीक्षा कर रही हो- वाला बालक मिला और मातृत्वको कलंकित या दम्भ अर्ध-खण्ड बालककी ! विपुल-सम्पत्तिका प्राधा-भाग ! माबित करने वाली वसुदत्ताको मिला-अपमान, घृणा
अभयकुमार के मुंह पर उपाकी सुनहरी मुस्कान की दृष्टि और राज्य-दण्ड !!! खेल उठी ! छुरेको दूर फेंक कर बोले-दृढ और उमंग
सुभाषित
__ "तुम गोराईमें चन्द्रमाको भी मात करने वाले हो तो क्या, यदि वाणीमें कट-वाक्य भरे पड़े हैं। एक जापानी नीतिकारका कहना है-"रत्नमें पड़ा हुआ दाग खराद पर चढ़ाकर निकाला जा सकता है, परन्तु हृदयमें लगा हुआ कुवाक्यका दारा मिटाया नहीं जा सकता ।" __"वाणी व्यक्तित्वका परिचय देनेमें प्रथम है, क्योंकि अन्य गुण तो साथ रहने पर धीरे-धीरे प्रकट होते हैं, पर बाणीकी गरिमा तत्काल प्रकट होती है । इसके द्वारा सर्वथा अपरिचितको भी थोड़े वार्तालाप ही स्नेह और सहानुभतिक सूत्रमं बान्धा जा सकता है। दिव्य वाणी बोलने वालोंके लिये संमारमें चारों तरफ-अमीर-गरीब, परिचित-अपरिचित सबके द्वार स्वागतके लिये खेल रहते हैं। उनके मगमें लोग पलक-पाँवड़े बिछा देते हैं । ऐसा सम्मान छत्रधारी सम्राट होने पर भी शायद ही कोई पा सके।"