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________________ अनेकान्त [श्रावण, वीर निर्वाण सं०२४६६ जब अपनी चेतन वस्तु को मिला देता हूँ; तो लग गये; और तो भी मैं पूर्ण नहीं हुआ। लेकिन उसमेंसे जो मधुर आवाज निकलती है वह महि- यह हो सकता है कि कोई आदमी आज ही शुरू सक होती है । उसमें जो लोहा लगा है; उससे करे और जल्दी ही पूर्ण हो जाय । इसलिये मैंने खून भी हो सकता है । लेकिन मैंने इस चरखेमें पृथ्वीसिंहसे कह दिया कि तुम में हिंसक वीरता तो मनुष्यके हित के लिए उसे लगाया है । मैं उसकं थी। मुझमें तो यह भी नहीं थी। अगर तुम सच्चे सारे अंग स्वच्छ रखता हूँ। उसमेसे अगर मधुर दिलसे अहिंसाको अपनावोगे, तो बहुत जल्दी आवाज न निकले, तो वह हिसक चीज बन जाती सफल होगे; मुझसे भी आगे चले जाओगे। है। हमें तो अहिंसाका यज्ञ करना है । यज्ञकी . मैं सफल शिक्षक बनना चाहता हूं सामग्री बिल्कुल शुद्ध होनी चाहिये । खराब लकड़ी; खराव लोहा लगावेंगे तो रही चरखा मेरी अपेक्षा दूसरे लोग मेरे प्रयोगमें अधिक बनेगा। उसकी आवाज कणकटु होगी । यज्ञकी सफल हों तो मैं नाचूंगा। वे अगर मुझे हरा दें तो सामग्री ऐसी नहीं होती। मैं अपने आपको सच्चा शिक्षक समझूगा । इमी इस प्रकारके अनुसंधानसे अगर हम अपनी तरह मैं अपनी सफलता मानता आया हूँ । मैंने प्रत्येक क्रिया करेंगे, तो हमारी अहिंसाकी साधना लोगोंको जूते बनाना सिखाया है, अब ने मुझसे शुद्ध होगी। शुद्ध साधनाके लिए शुद्ध उपकरण आगे बढ़ गये हैं। यह प्रभुदाम तो खड़ा है। इसे भी चाहिये । चरखेको मैंने शुद्ध उपकरण माना जूते बनाना मैंन सिखलाया। इसकी इतनीमी उम्र है। जो मनः पूर्वक यज्ञ करता है, उसे यज्ञकी थी। यह मुझसे आगे बढ़ गया । दूसरा सैम था। सामग्री ही प्रिय लगती है। इसलिए मुझे चरखा वह कारीगर था। उसने तो वह कला हस्तामलकप्रिय है । उसकी आवाज मीठी लगती है। मेरे वत कर ली । वे मब मुझसे आगे बढ़ गये । लिये वह अहिंसाका संगीत है। क्योंकि मेरे दिल में चोरी नहीं थी । मैं जो कुछ जानता था सब उन्हें देनको अधीर था । उन्होंने आप मुझसे आगे बढ़ें मुझे हरा दिया, यह मुझे अच्छा लगता है। क्योंकि हमको पता नहीं कि इस तरहकी साधनाकं उसका यही मतलब है कि मैं सही शिक्षक हूँ। लिये किसे कितने वर्ष लगेंगे। किसीको हजार वर्ष अगर अहिंसाका भी मैं सही शिक्षक हूँ तो जो लग जायं तो कोई एक ही वर्ष कर लेगा । मुझे लोग मुझसे अहिंसा सीखते हैं, वे मुझसे आगे बढ़ यह अभिमान और मोह नहीं है कि मैंने पचास जायेंगे। मुझमें जो कुछ धरा है, वह सब मैं दे वर्ष तक साधना करली, इसलिये मैं जल्दी पूर्ण हगा देना चाहता हूँ। जो लोग आश्रममें मेरे साथ रहे और आप अभी शुरू कर रहे हैं, इसलिये आपको हैं जो दूसरे भी जो आज मेरे साथ रहते हैं, वे अधिक वक्त लगेगा। यह अभिमान मिथ्या है । मैं अगर मुझसे आगे नहीं बढ़ते तो इसका यह अर्थ तो अपूर्ण हूँ डरपोक हूँ। इसलिये मुझे इतने साल होता है कि मैं सफल शिक्षक नहीं हूँ।
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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