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________________ जैनदृष्टिका स्थान तथा उसका आधार [ लेखक-न्यायदिवाकर न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमार शात्री ] [इस लेखके लेखक पं. महेन्द्रकुमारजी शाजी काशी-स्याद्वाद महाविद्यालयके एक प्रसिद्ध विद्वान है, और वहाँ न्यायाध्यापकके आसन पर आसीन हैं । हालमें पाप षट्खण्ड-न्यायाचार्य के पदसे भी विभूषित हुए हैं जैनियों में सर्वप्रथम आपकोही काशीकी इस पट्खएड न्यायाचार्यकी पदवीसे विभूषित होनेका सौभाग्य प्राप्त हुमा है। आप बड़ेही विचारशील एवं सजन हैं और खूब तुलनात्मक अध्ययन किया करते हैं, जिसका विशेष परिचापक आपके द्वारा सम्पादित हुआ'न्यायकुमुदचन्द' नामका ग्रन्थ है। तुलनात्मक दृष्टिसे लिखा हुमा पापका यह लेख बढ़ा ही महत्वपूर्ण है । इसमें भगवान् महावीरकी अनेकान्त दृष्टिका और उसे दूसरे दर्शनों पर जो गौरव प्राप्त है उसका बड़े अच्छे ढंगसे प्रतिपादन एवं स्पष्टीकरण किया गया है । साथ ही, जो यह बतलाया है कि, अनेकान्तरष्टिको अपनाए बिना वास्तविक अहिंसा नहीं बन सकती-राग-द्वेष और विरोधकी परम्परा बन्द नहीं हो सकती, अनेकान्तरष्टि जैनधर्मकी जान है,उसे छोड़कर अथवा भुलाकर हम वीरशासनके अनुयायी नहीं रह सकते,अनुयायी बनने और अपना भविष्य उज्ज्वल तथा जीवन सफल करनेके लिये हमें प्रत्येक प्रश्न पर-चाहे वह लौकिक हो या पारलौकिक-अनेकान्त दृष्टिसे विचार करना होगा, वह सब खासतौरसे ध्यान देनेके योग्य है । प्राशा है पाठकजन लेखको गौरसे पढ़कर यथेष्ट लाभ उठाएंगे। -सम्पादक] भारतीय दर्शनशास्त्रांक सामान्यतः दो विभाग किये निकलता है व यद्यपि स्वयं श्राचारप्रधान थ तथापि, गा सकते हैं-एक वैदिक दर्शन और दूसरे उत्तरकालीन प्राचार्यवर्गने अपने अपने दर्शनांक अवैदिक दर्शन । वैदिक दर्शनमें वंदको प्रमाण मानने विकाममें तक की पराकाष्ठा दिखाई है और उम उम वाले वैशेपिक, न्याय, उपनिषद्, मान्य, योग, पूर्व तर्क जन्य विकामशील माहित्यम दर्शनशास्त्र के कोपागारमीमांमा अादि दर्शन हैं। अवैदिक दर्शनों में वैदिक यज्ञ में अपनी ओरमे भी पर्याप्त पंजी जमा की है। हिमाके खिलाफ विद्रोह करने वाले, वेदकी प्रमाणता बौद्धतिकी उदति पर अविश्वास रखने वाले बौद्ध और जैनदर्शन हैं। बद्ध जब तपस्या करने जाते हैं तब उनकी विचारचाँदिक दर्शन के आधार एवं उद्भव स्थानमें विचारोंका धागको देखिाए । उममें दर्शनशास्त्र-जैमी कल्पनाश्रीको प्रामुख्य है तथा अवैदिक दर्शनोंकी उद्भनि प्राचार- कोई स्थान ही नहीं है । उम ममय तो उनका करुग्णाशोधनको प्रमुखतासे हुई है । प्रायः मभी दर्शनोंका मय हृदय संमारके विषयं कपायोंसे विरक्त होकर मारअन्तिम लक्ष्य 'मोक्ष' है। गौण या मुख्यरूपस तत्त्य- . विजयको उद्यत होता है। वनो विषय-कपाय ज्वालास ज्ञानको साधन भी सभीनं माना है । वैदिकदर्शनकी बुरी तरह झलसे हुए प्राणियांक उद्धार के लिए अपना परम्परा के स्थिर रखने के लिये तथा उसके अतुल विका- जीवन होम देनेकी भावनाको पुष्ट करते हैं । उनका मके लिये प्रारम्भसे ही बुद्धिजीवी ब्राह्मणवर्गने सुदृढ चित्तप्रवाह संसारको जलबुबुदकी तरह क्षणभंगुर, प्रयत्न किया है । यही कारण है कि श्राज वैदिकदर्शनों- अशुचि, निरात्मक-श्रात्मस्वरूपसे भिन्न अात्माके लिए की मूक्ष्मना एवं परिमाणकी तुलनामें यद्यपि अवैदिक निरुपयोगी, तथा दुःखरूप देंग्यता है । वे इमं दुःग्वदर्शन मात्रामें नहींवत् है, पर उनकी गहगई और सन्नति के मूल काग्गोंका उच्छेद करनेके लिए. किमी मृक्षमता किसी भी तरह कम नहीं है। बौद्ध और जैन- दर्शनशास्त्रको रचना नहीं करके उमके मार्गकी खोजके दर्शनका मूलस्रोत जिन बुद्ध और महावीरके वाक्याँस लिए तपस्या करते हैं। वह वर्ष तक उग्र तपस्या चलती
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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