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अनेकास
वर्ष ३, किरण ।
रुद्र (भयंकर ) खून रंगे हाथ वाले, क्रूरकर्मा, मनुष्यों में अपने जीवन में साधु होनेके पहले बहुत ही क्रूरकर्मी नीच जाति वाले (पद्याजाता ) हैं, वे निगंठोंने साधु था* | क्रूरकर्मी चोरकी लोक में कोई भी प्रशंसा नहीं बनते हैं।" (चलदुक्ख-रखन्ध-सुत्तन्त)
करंगा-फिर भी वह मुनि हुश्रा । इसका स्पष्ट अर्थ यह उद्धरण भ. महावीरके समयमें जैनसंघकी यही है कि वह नीचगोत्री नहीं था और गोत्रके व्यापारप्रवृत्तिका दिग्दर्शन कराता है। इसमें बौद्धोंके आक्षेप- का सम्बन्ध लोकनिंद्य और लोकवद्य आचरणोंसे नहीं वृत्तिगत संदिग्धताकी भी शंका नहीं करनी चाहिये क्योंकि बैठता। फरकर्मी श्रादि रूप होना चारित्र मोहनीय जैनागमसे एक हद तक इसका समर्थन होता है । सि- कर्मप्रकृतिसे ताल्लुक रखता है-गोत्रकर्मसे उसका द्धांत ग्रंथोंस स्पष्ट है कि रुद्र भृष्ट-मुनि आर्यिकाकी संतान सम्बन्ध बिठाना ठीक नहीं । अतएव उपर्युक्त विवेचनहोता है और ग्यारह अंग और नौ पूर्वोका पाठी मुनि के श्राधारसे यह मानना ठीक ऊँचता है कि भ० महाहोता है । भ० महावीरके ममयमें सात्यकिपुत्र नामक वीरने मनुष्य जातिको उच्च गोत्री ही बताया था । मनुष्यों अंतिम रुद्र ज्येष्ठा आर्यिका और सात्यकि मुनिका का जन्मगत व्यापार-श्रुतपर्यवेक्षणभाव उन्हें उच्चगोत्री व्यभिचारजात पुत्र था । वैदिक धर्मकीप्रधानता उस का. ही ठहराता है गोम्मटसार कर्मकाण्ड गाथा नं० १८ लमें बिल्कुल नष्ट नहीं हुई थी और कुलमदका व्यवहार से हमारे उक्त वक्तव्यका समर्थन होता है, क्योंकि लोगोमस एकदम दूर नहीं हो गया था--व्यभिचार- उसमें नीच-उच्च-गोत्र भवाश्रित बताये हैं । मनुष्यभव जातको जनता लोकनिंद्य नीच ही मानती थी; किन्तु उच्च ही माना गया है । मनन करनेकी क्षमता रखने तीर्थकर महावीरने अन्तिम रुद्रको लोकनिन्द्यताका वाला जीव ही मानव है और वह अवश्य ही सर्वश्रेष्ट ज़रा भी खयाल नहीं किया और उसे मुनि दीक्षा देदी। प्राणी है । भ० महावीरने ऐसा ही कहा था, यह उपइसी तरह हिमारक चोरने मुनि होकर एक राजाको यक्त विवेचनसे स्पष्ट है । श्राशा है, विद्वज्जन इस जानम मार डाला, जिससे यह स्पष्ट है कि अहिमारक विषयको और भी स्पष्ट करेंगे।
8 देखो भाराधना कथाकोशमें सात्यकि और रुद्र कथा नं.२७ ।
के देखो अनन्तकीर्ति ग्रन्थमालामें प्रकाशित भगवती पाराधनाकी 'महिमारपणादि गाथा नं.२०७१
विविध प्रश्न प्र.-कहिये धर्मका क्यों श्रावश्यकता है ? चाहिये । यदि कर्मको पहले कहो तो जीवके उ०-अनादि कालसे आत्माकं कर्म-जाल दूर करने बिना कर्मको किया किसने ? इस न्यायसे के लिये।
दोनों अनादि हैं। प्र०-जीव पहला अथवा कम ?
प्रक-जीव रूपी है अथवा अरूपी ? ०-दोनों अनादि हैं। यदि जीव पहले हो तो -देहके निमित्तसे रूपी है और अपने स्वरूपसे इम विमल वस्तुको मल लगनंका कोई निमित्त अरूपी ।
-राजचन्द्र