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अनेकान्त
[पौष, वीर-निर्वाय सं०
आपका प्रवेश प्रति गम्भीररूप धारण कर गया थे। एकबार पं० सुखलालजीने उसकी अनुपयो. था।
गिता व्यक्त करते हुए कड़ी आलोचना की, जिसे न्यायशास्त्रादि-विषयक अभ्याम कम होनेपर आप, कोई खास विरोध न करते हुए, पी गये भी, गत दिन सतत स्वाध्याय-परायण होनेसे, प्रायः और उसके बादसे ही आपने संस्कृतमें प्रस्तावना प्रत्येक विषयमें आपका अच्छा अनुभव होगा लिखनेकी पृथाको प्रायः बदल डाला, जिसके फलथा। सामान्यतया किमीको ऐसा प्रतीत नहीं होता स्वरूप उनके तथा उनके शिष्यके प्रकाशनोंमें श्राज था कि आपका इन विषयों में कम अभ्याम है। अनेक महत्वकी ऐतिहासिक वस्तुएँ गुजराती भाषा___ जहाँ कहीं भी श्राप रहते थे श्रापका दिन-रात द्वारा जाननी मुगम होगई हैं, ऐमा पं० सुखलालजी विद्या-व्यासंग चलता था। आपके स्वभावमें नम्रना, अपने उक्त संस्मरणात्मक लेखमें सूचित करते हैं। कार्यमें मतर्कता, परिणतिमें सत्यमाहिता और व्य- और यह स्व० मुनिजीकी सत्याग्राही. परिणतिका वहारमें शुद्धता थी। माथ ही, आपके हृदयमें एक नमूना है, जिसने पं० सुखलालजीको विशेष सदैव जिज्ञामावृत्ति और शास्त्रीद्धारकी उत्कट प्रभावित किया था। अस्तु । भावना बनी रहती थी। सबके साथ आपका प्रेमका सद्गत मुनि श्रीचतुरविजयजोके जीवनका बर्ताव था और श्राप दूमरे माहित्यसेवियों को यथा- प्रधान लक्ष प्राचीन माहित्यकी संवा था, जिसके शक्य अपना वाँछित सहयोग प्रदान करने में कभी लिये आप दीक्षासे लेकर अन्त ममय तक कोई श्राना-कानी नहीं करते थे । इन्हीं मब गुणांक ५१ वर्ष पर्यंत-बड़ी ही तत्परता और सफलताकं कारण मुनि जनविजय और पं० सुखलालजी जैसे साथ बराबर कार्य करते रहे हैं। आप जहां कहीं प्रकाण्ड विद्वान आपके प्रभावस प्रभावित थे। पं० भी जाते थे पहले वहांक शास्त्र भंडारोंकी जांच सुखलाल जीन हालमें जो आपके कुछ मस्मरण पड़ताल करते थे, जो भंडार अव्यवस्थित हालनमें 'प्रबुद्ध जैन' नामके गुजराता पत्रमें प्रकट किये हैं होते थे उनकी सुव्यवस्था कराते थे,प्रन्थोंकी लिस्ट उनमें इस बातको स्वीकार किया है और स्पष्ट सूची तैयार करते थे, ग्रन्थोंको टिकाऊ कागजके लिया है कि-"आपकी नम्रता, जिज्ञामा और कवरमें लिपटवाते, गत्तोंके भीतर रखाते और
'निम्बालसतान मुझे बाँध लिया 'इम सत्य- अच्छे वेष्ठनोंमें बंधवाते थे, उन पर लिस्टकं अनुप्राही प्रकृतिने मुझे विशेष वश किया। 'पुस्तकों मार नम्बर डालते थे और उन्हे मुरक्षिन अलमाका संशोधन और सम्पादन कार्य करने में मुझे जो रियों, पेटियों अथवा बोक्सोंमे क्रमशः विराजमान अनेक प्रेरक बल प्राप्त हुए हैं उनमें म्बर्गवामी मुनि करते थे । जो प्रन्थ जीर्ण-शीर्ण अवस्था में होते थे श्रीचतुरविजयजीका स्थान खास महत्व रखता है, अथवा अलभ्य और दुष्प्राप्य जान पड़ते थे उनकी इस दृष्टिस मैं उनका हमेशा कृतज्ञ रहा हूँ।' सुन्दर नई कापियाँ स्वयं करते और कराते थे !
आजसे कोई २०-२५ वर्ष पहले आप मुद्रित दूसरेकी की हुई कापियोंका संशोधन करते थे, इस प्रयोंकी प्रस्तावना संस्कृत भाषाम ही लिखा करते तरह आपके द्वारा तथा प्रापकी प्रेरणाको पाकर