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________________ वर्ष ३, किरम.] भारतीय दर्शनों में बैन-एसनका स्थान १४ महंकार तत्वकी उत्पत्ति भी इसीसे है। तदनन्तर में अजीव तत्त्व केवल संख्यामें ही एकसे अधिक प्रकृति अपने मात्मविकास के कारणस्वरूप आव. है, यही नहीं; बल्कि प्रत्येक अजीव तत्व भनात्म श्यकतानुसार क्रमशः इन्द्रिय, तन्मात्रा, कहे जाने स्वभाव है। उपर्युक्त कथनानुसार सांख्यके भजीच वाले जड़तत्वोंकी सृष्टि अपने आप ही करती रहती तत्व या प्रकृतिको तो अध्यात्म पदार्थके रूपमें परिहै। इस तरह प्रकृतिको अध्यात्मपदार्थ और उसमें णत किया जा सकता है। किन्तु जैन दर्शनके पैदा होनेवाले तत्वोंको प्रकृतिके स्वात्म-विकासका अजीव तत्व समूहोंको किसी भी प्रकारसे जीव साधन मान लेनेसे सांख्यकी बनाई हुई जगत- स्वभावापन्न नहीं बनाया जा सकता। जैनमतके विवर्त-क्रिया बहुत कुछ समझमें आजाती है। प्रकृ. अनुसार अजीव तत्त्र पंच संख्यक है-पुद्गलाख्य ति तत्वको अध्यात्म पदार्थक रूपमें मानना वस्तुतः जड़ परमाणु पुंज, धर्माख्य गतितत्व, अधर्माख्य अपरिहार्य है। प्राचीन कालमें भी प्रकृति अध्या- स्थैर्यतत्व, काल और आकाश । ये सब जड़पदार्थ स्मपदार्थक रूपमें न मानी गई हो ऐसा नहीं है। अथवा उमके सहायक हैं, यहाँ तक कि श्रात्माको कठोपनिषदकी तृतीय वल्लीके निम्न श्लोक नं० १०, भी जैन दर्शनने मस्तिकाय माना है याने परिमाण ११ में प्रकृतिको अध्यात्मस्वभावक रूपमें प्रकाश अनुसार आत्माका “कर्मज लेश्या" या वर्णभेद है। करने एवं उसके द्वारा सांख्य दर्शनको वेदान्त जैनदर्शनमें आत्मा अत्यन्त लघु पदार्थ और ऊर्द्धदर्शन में परिणत करनेकी जो चेष्टा की गई है वह गतिशील कहा जाता है। ये सब बातें सांख्यमतके सुस्पष्ट है: विरुद्ध हैं। हमने पहले ही कहा है कि सांख्य दर्शन बहुत कुछ चैतन्यवादके निकटवर्ती है, और जैन इन्द्रियेभ्यः परो झर्थ अर्थेभ्यश्च परो मनः । दर्शन प्राय: जड़वादकी ओर झुकता रहता है। मनसरचः परा बुदिबुद्धरास्मा महान् परः। __ जैनदर्शन सांख्य दर्शनसे विभिन्न है, सुतरा महतः परमम्पकमब्यक्ताव पुरुषः परः। सांख्य दर्शनसे जैनदर्शनकी उत्पत्ति नहीं मानी जा पुरुषान्न परं किचित् सा काष्ठा सा परा गतिः॥ सकती। बहतसे ऐसे विषय हैं कि जिनमें सांख्य और जैनदशेनमें परस्पर सम्पूर्ण विरोध है। उदाअर्थान-इन्द्रियोंसे अर्थ समूह श्रेष्ठ है, अर्थ हरणार्थ यह कहा जा सकता है कि सांख्यके मतासमूहोंसे मन श्रेष्ठ, मनसे बुद्धि श्रेष्ठ, बुद्धिसे मह खि श्रष्ठ, बुद्धिसे मह. नुसार प्रात्मा निर्विकार और निष्क्रिय है, किन्तु दात्मा, महदात्मासे अव्यक्त, अव्यक्तसे पुरुष, पुरुष जैनदर्शनका कहना है कि वह अनन्त उन्नति और से बढ़कर कोई भी वस्तु श्रेष्ठ नहीं, पुरुष ही शेष परिपर्णनाकी ओर झकने वाला अनन्त क्रिया-शक्ति सीमा हे और वही श्रेष्ठ गति भी है। का आधार है। जैन दर्शनका मत और ही कुछ है। जैन दर्शन हाँ, यह अवश्य कहा जा सकता है कि महित
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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