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________________ परवार जातिके इतिहास पर प्रकाश जब इनकी स्वाधीनला छिन गई और एकतंत्र राज्योंमें शन्द पल्लीवाल, श्रोसवाल, जैस्वाल जैसा ही है और इनको समाप्त कर दिया, तब ये शम्न छोड़कर केवल उसमें नगर या स्थानका संकेत सम्मिलित है। महतसे वैश्य कर्म ही करने लगे और अब उनमें से कितने ही या महाब्राह्मणोंसे जो परवारोंकी उत्पत्तिका अनुमान पुराने नामोंको लिए हुए जातिके रूपमें अपना अस्ति- किया है वह तो निराधार और हास्यास्पद है ही, इस त्व बनाये हुए हैं। संभव है कि अन्य वैश्य जातियोंके लिये उस पर कुछ लिखमेकी जकरत ही नहीं माखन विषयमें भी खोज करनेपर उनका मन भी अरोड़ा, . खत्री, मल्ल श्रादि जातियों के समान प्राचीन गणतत्रों में अगर हम 'परवार' शब्दके अन्तका 'वार' 'वाट' निजा मीन के अर्थमें लें तो यह सिद्ध करना ज़रूरी है कि इस समय बार स्थान परिवर्तनके कारण नये स्थानों परसे नये परवार जातिका जहाँ श्रावास है वहाँ वह किसी समय नाम प्रचलित हो गये हों और पुराने गणतत्र वाले नाम कहीं अन्यत्रसे पाकर बसी है। उसे वर्तमान आवास भल गये हों। स्थानमें आये हुए कई शताब्दियाँ बीत गई हैं इसलिए उनके रहन-सहन, रीति-रिवाजोंमें पहले कुछ खोज निकापरवारोंके विषयमें प्रचलित मान्यताओंका लना, अशक्य मा है, फिर भी कुछ बातें ऐसी हैं जिनसे खंडन और अपने मतका स्थापन बाहरसे पानेका अनुमान ज़रूर हो सकता है। सबसे परवार जातिके विषयमं अधिक खोज करनेसे पहले पहली बात पंचायती संगठन है । बुंदेलखंड और मध्ययह जरूरी है कि इसके सम्बन्धमें प्रचलित मान्यताश्री प्रदेशमें शायद ही कोई ऐसी मूल जाति हो जिसमें इस का विचार किया जाय। तरहका पंचायती अनुशासन हो यह अनुशासन उन्हीं _ 'परवार' शब्दको बहुतमे लोग 'परिवार' का अप. जातियोंमें होना स्वाभाविक है जो कहीं अन्यत्रसे श्राकर भ्रष्ट रूप बतलाते हैं जिसका अर्थ कुटुम्ब होता है । कोई बसती हैं और जिन्हें दूसरोंके बीच अपना स्थान बनाकर यह भी कल्पना करते हैं कि शायद परवार 'परमार' रहना पड़ता है या जो गणतंत्रोंकी अवशेषहैं। इनके व्याह राजपत्तोंमेंसे हैं, जिन्हें आजकल पवार भी कहते हैं। शादी श्रादिके रीति-रिवाज भी अन्य पड़ोसी जातियोंसे परन्तु ये सब कल्पनायें हैं। मूल शब्दसे अपभ्रष्ट होने के निराले है । ब्राह्मणोंको इस जातिने अपने सामाजिक और भी कुछ नियम है और उनके अनुसार 'परमार' से धार्मिक कार्योस बिल्कुल बहिष्कृत कर दिया है । यहाँ 'परवार' नहीं बन सकता। अपभ्रंशमें 'म' का कुछ तक कि उनके हाथका भोजन भी ये नहीं करते। यदि अंश शेष रहना चाहिए जैसा कि 'पंवार' में वह अनु ये जहाँ वहींके रहने झाले होते, तो ब्राह्मणोंका प्रभाव स्वार बनकर रह गया है। हमारी समझमें परवारी परमी होता जो प्रत्येक प्रतिकी प्रत्येक आतिमें परम्परा भस विपकी बिष बालीजिए देखोस गत रहा है। इनकी स्त्री-पुरुषोंकी पोशाकमें भी विशेषता गीय .. . बायसवाल न्यू राय- थी, जो अब लुप्त हो रही है। हमारी समझमें पांघ, चावन्द संस्कृत भामा प्रत्यक्षा। परवार, पडीवास वगैरह शब्दों का "मर' मा देखो बागे इसी विषयकी पनि । . .
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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