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________________ वर्ष ३, किरण३] ज्ञातवंशका रूपान्तर जोटवंश [२३४ साथियोंके सदस्योंके-आपसी विरोधसे होती हैं अर्थात्-कड़वी और ओछी बातें कहने को वे अभ्यंतर मानी जाती हैं। यहां जो आपत्ति है. इच्छावाले ज्ञातियोंकी वाणीसे अपने हृदय और वह आभ्यंतर है। वह सदस्यों के अपने कर्मों से उत्पन्न वाणीको शांत रखो। साथ ही अपने उत्तरसं उनके हुई हैं। प्रकर-भोजादि और उनके सब संबंधियों मनको प्रसन्न रक्यो । केवल भेदनीतिमे संघका ने धनके लोभसे, किसी कामनासे अथवा बीरता नाश होता है। हे केशव. तुम संघके मुखिया हो। की ईर्ष्यासे, स्वयं प्राप्त ऐश्वर्यको दूसरोंके हाथों अथवा संघने तुमको प्रधानरूप से चुना है। इस सौंप दिया है। जिस अधिकारने जड़ पकड़ ली है लिये तुम ऐसा काम कगे, कि जिसमे शातियोंका और जो ज्ञाति शब्द की सहायता से और भी दृढ़ धन, यश, आयुष्य, स्वपक्षपुष्टि एवं अभिवृद्धि होती हो गया है, उसे वमन किये हुए अन्नकी भाँति रहे । हे राजेन्द्र, भविष्य-संबन्धी नीतिमें, वर्तमानवापिस नहीं ले सकते । बभू उग्रसेनसे राज्याधि- कालीन नीतिमें एवं शत्रुत्राको नीतिसे आक्रमण कार पाना किसी भी तरहसे शक्य नहीं है। ज्ञाति करनेकी कलासे और दूसरे राज्योंके साथ यथोभेदके भयसे हे कृष्ण, तुम भी विशेष सहायता नहीं चित वाव करनेकी विधिमें एक भी बात ऐसी कर सकते । यदि उग्रसेनको अधिकारच्युत करनेके नहीं है, जो तुम्हे मालूम न हो । हे महाबाहो, समान दुष्कर कार्यकी भी सिद्धि करलीजाय तो समस्त यादव, कुकुर, भोज, अंधकवृष्णि, उनके महाक्षय, व्यय और विनाश तक हो जानेकी सब लोग और लोकेश्वर अपनी उन्नति एवं संपसंभावना है। इस जटिल समस्याको तुम लोहेके नता के लिए तुम्हीं पर निर्भर है।* शस्त्रांसे नहीं बल्कि कोमल शस्त्रोंसे निविरोध महामारतके कथनका सारांश सुलझा सकोगे। कृष्णजीने पूछा, कि इन मृदु महाभारतमें उपलब्ध हुए उक्त प्रमाणका अलोह शस्त्रों को मैं कैसे जान सकू? तब नारद सारांश यह है, कि, यदुवंशकं दो कुलों-अंधक जी ने जवाबमें कहा: और वृष्णि--ने एक राजनैतिक संघ स्थापित किया शातीनां वक्तुकामानां, कटुकानि लघूनि च । था। उसमें दो दल थे, जिनमेसे एककी तरफ गिरावं हृदयं वाचं, शमयस्व मनांसि च ॥ श्रीकृष्ण और दूसरे की तरफ उग्रसेनजी थे। श्री + + + भेदार विनाशः संघस्थ, संघमुख्योऽसि केशव । कृष्ण के दलवाले लोग बलवान, बुद्धिमान होते यथा त्वां प्राप्य नोत्सी, देव संघ तथा कुरु ॥ हुए भी प्रमादी और ईर्ष्यालुप्रकृतिके थे। अतः दूसरे दलके मुकाविलेमें वाद-विवादके समय धनं यशश्च घायुष्यं, स्वपक्षोदावन तथा । श्रीकृष्मको अधिक परेशानी होती थी। इसी परेशाशातीनामविनाश: स्यायथा कृष्ण तथा कुरु ॥ नीको मिटाने के उपायकं लिए श्रीकृष्ण जी ने नारद आयत्यां च तदात्वे च, न तेऽस्त्यविदिन प्रभो। जीम परामर्श किया था। पाडगुण्यस्य विधानेन, यात्रायां न विधी तथा ।। यावा कुकुरा मोजाः सर्वे चान्धकवृष्णयः । *महामारतके संदर्मक उपारलिम्वित खरण श्रीयुत काशीप्रसाद वायचा महाबाहो, लोकालोकेश्वराश्च ये॥ आयसवाल कृत 'हिंदू राज्यतंत्र' लिये गये है।
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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