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________________ २५४] अनेकान्त पौष, वीर निवाण सं० २२६६ % 3D - होता है, परन्तु "आँखने देखा" ऐसा व्यवहार की उत्पतिका कारण बताया है। इन्द्रियोंको मतिकिया जाता है। ज्ञानकी उत्पत्तिका स्थान नहीं बताया। पंचाध्यापदार्थोकी किरणे पहिले आँखकी कनीनका- यीकारने मनःपर्ययज्ञानकी उत्पत्तिका स्थान मन पर पड़ती हैं। वहाँसे चक्षुके भीतर प्रवेश करती बताया है। हैं, जल, रस, वारा, ताल, तथा स्वच्छ गाढ़े द्रवमें- दूरस्थाननिह समक्षमिव वेत्ति हेलया यस्मात् । से होकर अन्तरीय दृष्टि पटल अथवा बानी परदे केवल मैवमनसादवषिमन:पर्ययद्वयं शान ॥ ७०५ ॥ पर पड़ती हैं। ज्ञानी परदेमें चतुकी नाड़ीको उनके अर्थात्-अवधि और मनः पर्ययज्ञान केवल द्वारा प्रोत्साहन मिलता है, वह प्रोत्साहन मस्तिष्क मनसे दूरवर्ती पदार्थोंको लीलामात्रसे प्रत्यक्ष में पहुँचकर दृष्टिकेन्द्र के पुष्पको जागृत करता है। जानलेते हैं। यहां मनको सहायताका और कुछ पश्चात हमें देखनेका ज्ञान होता है। यह नेत्रानु- अर्थ नहीं है, केवल यही अर्थ है कि द्रव्यमनके भवका तरीका है। इसीप्रकार मनके लिए भी आत्मप्रदेशोंमें मनःपर्ययज्ञान होता है। मनसमझना चाहिए। अत: व्यवहारमें यदि मनका इन्द्रियसे मनःपर्यय ज्ञानका और कुछ भी प्रयो. काम हेयोपादेयरूप कहाजाय तो अनुचित नहीं जन नहीं है, क्योंकि वह इन्द्रिय निरपेक्ष होता है। समझना चाहिए। नीचेकी गाथा से इस अर्थकी और भी पुष्टि हो जैनाचार्योंने भी मनको कारण ही बताया है। जाती है। ऐसा नहीं कहा है कि मनके द्वारा हृदयके आत्म- अपिकिं वाभिनिवोधक बोधद्वैतं तदादिम यावत् । प्रदेशोंमें संवेदन होता है। आचार्य पूज्यपादने स्वात्मानुभूति समये प्रत्यक्षां तत्समक्षमिव नान्यत् ॥ ७०६ ॥ "यतो मनो व्यापारोहिताहित प्राप्तिपरिहारपरीक्षा' अर्थात्-केवल स्वात्मानुभूतिके समय जो ऐसा ही कहा है। मनका व्यापार हिवाहिव-प्राप्ति- ज्ञान होता है, वह यद्यपि मतिज्ञान है तो भी वह परिहारमें होता है, इसका अर्थ यह नहीं लिया वैसाही प्रत्यक्ष है जैसा कि प्रात्मभाव सापेक्ष जासकता कि यह व्यापार मनके भीतर ही हुआ प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। करता है। इसी बावको उमास्वामीने बहुत ही स्पष्ट यहां मतिज्ञानको भी जब इन्द्रियोंकी अपेक्षा कर दिया है-वत्त्वार्थसूत्रके प्रथम अध्यायमें मति- नहीं होती, उस ममय प्रत्यक्ष कहा है, फिर यदि स्मृति-संज्ञा-चिन्ता अभिनिवोध-रूप मतिज्ञान कैसे मनःपर्ययज्ञानको मनइन्द्रियकी सहायतासे माने उत्पन्न होता है ? इसका कारण बतानेके लिये तो उसे प्रत्यक्ष कैसे कह सकेंगे। "तदिन्द्रियानिन्द्रिय-निमित्तम्" इस सूत्रकी रचना गोमटसार-जीवकाण्डकी ३७० वो गाथामें की है। इस सूत्रमें बताया गया है कि मतिज्ञानके अवधिज्ञानके स्वामीका वर्णन करते हुए यह भी उत्पन्न करनेके लिये स्पर्शन, रसन, प्राण, चतु, बताया है कि गुणप्रत्यय अवधिज्ञान शंखादिक श्रोत्र और मन ये छह बहिरंग कारण हैं"। यहां चिन्होंके द्वारा हुआ करता है, तथा भवप्रत्यय पाचायने अन्य इन्द्रियोंकी तरह मनको भी ज्ञान- अवधिज्ञान संपूर्ण अंगमें होता है। इसका स्पष्ट
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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