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________________ अनेकान्त [पारिवन, बीर निर्वावसं.२०१६ कार भी किया है। अतः उक्त वास्यमें भाईयवचने' पद हैं। यदि गुण भी कोई तत्व होता तो उसके विषय के प्रयोगमात्रसे यह नतीजा नहीं निकाला जासकता कि को लेकर मूननयके तीन भेद होने चाहिये थे-तीसरा अकलंकदेवके सामने वर्तमानमें उपलब्ध होने वाला मूलनय गुणार्थिक होना चाहिये था-परन्तु वह तीसरा श्वेताम्बर-सम्मत तत्वार्थभाष्य मौजद था, उन्होंने नय नहीं है । अतः गुणाभाव के कारण (द्रव्य के लिये) उसके अस्तित्वका स्पष्ट उल्लेख किया है और उसके गुणपर्यायवान् ऐमा निर्देश ठीक नहीं है, समाधानरूपमें प्रति बहुमान भी प्रदर्शित किया है।' अकलंकदेवने तो कहा गया है---"तत्र किं कारणं महत्प्रवचनहृदयादिषु इस भाष्यमें पाये जाने वाले कुछ सूत्रपाठीको श्रार्षविरो- गुणोपदेशात्" । अर्थात् यह अापत्ति ठीक नहीं, क्योंकि धी-अनार्य तथा विद्वानोंके लिये अपाह्य तक लिखा है। 'महत्प्रचनहद' आदि शास्त्रोंमें गुणका उपदेश पाया तब इस भाष्यके प्रति, जिसमें वैसे सूत्रपाठ पाये जाते जाता है । इसके अनन्तर ही उन शास्त्रों के दो प्रमाण हो, उनके बहुमान-प्रदर्शनकी कथा कहाँ तक ठीक हो निम्न रूपसे उद्धृत किये गये हैं, जिनमेंसे एकके साथमे सकती है, इसे पाठक स्वयं समझ सकते हैं।" प्रमाण ग्रन्यकी सूचनाके रूपमे बही 'महत्प्रवचने' पद लगा हुआ है और दूसरेके साथमें पूर्व ग्रन्थसे भिन्न ताका इससे स्पष्ट है कि विचारणामें उक्त प्रकारका कोई द्योतक 'अन्यत्र' पद जुड़ा हुआ है । दावा अथवा तर्क उपस्थित नहीं किया गया है । 'पहप्रवचनवदये के स्थान पर 'महप्रवचने के अपनेकी "उक्त हि महप्रवचने द्रव्याश्रया निगण गणा इति" छंभावना जरूर व्यक्त की गई है परन्तु निश्चितरूपसे यह "अन्यत्र चोक्तंनहीं कहा गया कि 'महत्प्रवचने' पाठ अशुद्ध है, जिससे वह दावेकी कोटिमें आ जाता–सम्भावना व गुण इति दवयिधाणं दम्ववियारोप पज्जयो भणियो। सम्भावना ही होती है, उसे दावा नहीं कह सकते । और तेहि अणणं इन्वं अजुदवसिब हदि णि॥१॥ इति संम्भावनाकी कल्पनाका कारण भी यह नहीं है कि इनमेसे पहला प्रमाण, कथनक्रमको देखते हुए, "राजवार्तिक बहुत जगह अशुद्ध छपा है" जिसे मेरे भाईप्रवचनहृदयका और दूसरा उन शास्त्रोमसे किसी बिना कहे भी मेरी ओरम इस बातको मिद्ध करनेके एकका है जिनका ग्रहण 'महत्प्रवचनहृदयादिषु' इस लिये हेतुरूपमें प्रस्तुत किया गया है कि उक्त "अहस्प्र. पदमें 'मादि' शब्दके द्वारा किया गया है। वचने' पाठ अशुद्ध है; बल्कि यह कारण है किराजवार्तिकके "गुणाभावादयु क्तिरितिचेचाहत्प्रवचन- "गुणा इति संशा तंत्रान्तराणां, पाहताना त हृदयाविषुगुणोपदेशात्" इस वार्तिक (५, ३७, २) के द्रव्य पर्यायवेति द्वितयमेव सत्वं मतबद्वितयमेव तद्भाष्यमें यह बहस उठा कर कि 'गुण यह संज्ञा अन्य योपदेशात् । ब्रम्मार्थिकः पर्यायार्थिक इति हावेव मूलशास्त्रोंकी है, श्रहंतोंके शास्त्रोंमें तो द्रब्य और पर्याय भयो । पदि गुणोपि कचिस्पात, तविषयेण मूबनयेन इन दोनोंका उपदेश होनेसे ये दो ही तत्व हैं, इसीसे तृतीयेन भवितव्यं । न चास्यसावित्पतो गुणभावात्, द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ऐसे दो मूल नय माने गये गुणपर्यापवदिति निर्देशो न युज्यते ।
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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