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प्रो. जगदीशचन्द्र और उनकी समीक्षा
दूसरे प्रमाण में दी हुई गाथा 'सर्वार्थसिद्धि' में भी प्रोफेसर जैसे विद्वानों के लिये ऐसा करना शोभा भी नहीं 'उक्तं च'रूपसे पाई जाती है और इससे वह कुन्दकुन्दा. देता । अस्तु । दि-जैसे प्राचीन श्राचार्योंके किसी ग्रन्थको गाथा जान अब देखना यह है कि समीचामें अन्य प्रकारसे क्या पड़ती है। ऐसी हालतमें कथनके पूर्वापर-सम्बन्धको कुछ कहा गया है। मेरी (सम्पादकीय) 'विचारणा' का देखते हुए, 'महंस्त्रवचने' के स्थान पर 'महप्रवचन- जो अंश ऊपर उद्धृत किया गया है उसकी अन्तिम हृदये' पाठके होनेकी बहुत बड़ी संभावना है, इमी एक पंक्तियोंमें भाष्य के प्रति अकलंकके बहुमान-प्रदर्शनकी कारणसे मैंने इस संभावनाको कल्पना की थी, जिसे बात पर जो आपत्तिकी गई है उसका तो समीक्षा में कहीं समीक्षामें प्रकट भी नहीं किया गया ! और यहाँ तक कोई विरोध नहीं किया गया, जिससे मालम होता है लिख दिया गया है कि "इस कल्पनाका कोई आधार प्रो॰साहक्ने मेरी उस आपत्तिको स्वीकार कर लिया है। नहीं!! साथ ही,यह बात भी कह दी गई हैकि 'यदि मैं शेष अंशकी समीक्षाको क्रमशः ज्योंका त्यों नीचे दिया किसी हस्तलिखित प्रति परसे उक्त पाठको मिलान करने जाता है। साथ ही, पालोचनाको लिये हुए उसकी का कष्ट उठाता तो मुझे शायद वैसी कल्पना करनेका परीक्षा भी दी जाती है, जिससे पाठकोंको उसका मूल्य अवसर ही न मिलता,' जो उक्त विवेचन तथा आगेके भी साथ साथ मालूम होता रहे:स्पष्टीकरणकी रोशनीमें निरर्थक जान पड़ती है। क्योंकि समीचा- "मुख्तारसाहब लिखते हैं-'अई. कुछ हस्तलिखित प्रतियोंमें वही पाठ होने पर भी कथन प्रवचनका तात्पर्य मूलतत्वार्थाधिगमसूत्रसे है, तत्वार्थ के पूर्वाऽपरसम्बन्ध परसे जो नतीजा निकाला गया है भाष्यसे नहीं।" अच्छा होता.१० जुगलकिशोरजी इस उसमें कोई अन्तर नहीं पड़ सकता । तब 'अहत्प्रवचन' कथनके समर्थन में कोई यक्ति देते।" पद अहत्प्रवचनहृदये' का ही संक्षिप्त रूप कहा जामकता १ परीचा-यहाँ डबल इनपटेंड कामाज़ के भीतर है । बाको प्रो० साहबने अपने लेखमें वर्तमानके मुद्रित जो वाक्य दिया है और जिसका मेरी ओरसे लिखा राजवार्तिको खुद ही अधिक अशुद्ध बतलाया था, इस- जाना प्रकट किया है वह उस रूपमें मेरा वाक्य न हो लिये मैंने सायमें यह भी लिख दिया था कि “इस कर प्रो० साहब के साँचे में ढला हुआ वाक्य है, जिसे मुद्रित प्रतिके अशुद्ध होनेको प्रोफेसरसाहबने स्वयं कुछ काट-छाँट करके रखा गया है-इस बातको अपने लेखके शुरूमें स्वीकार भी किया है;" परन्तु पाठक 'विचारणा'की कार उद्धृत की हुई पंक्तियों पर ऐसा तर्क नहीं किया था कि "क्योंकि राजवार्तिक से सहज ही मालूम कर सकते हैं। अन्यत्र भी वाक्यों बहुत जगह अशुद्ध छपा है अतएव"....।" के उद्धृत करनेमें इस प्रकारकी काट छाँट की गई है,
इस एक नमूने और उसके विवेचनपरसे साफ जो प्रामाणिकता एवं विचारको दृष्टिसे उचित मालम प्रकट कि समीक्षामें सम्पादकीय विचारणाको गलतरूप नहीं होती। इस काट-छाँटके द्वारा मेरे वास्यके शुरूका से प्रस्तुत करनेका भी आयोजन किया गया है, जिससे "प्रकटरूपमें" जैसा आवश्यक अश भी निकाल दिया 'समीक्षा'समीक्षा-पदके योग्य नहीं रहती और न समीक्षक है, जो इस बातको सूचित करने के लिये था कि 'हत्यका उसमें कोई सदुद्देश्य ही कहा जासकता है। साथ ही वचन' का अभिप्राय प्रकटरूपमें (बाह्य दृष्टिसे) मूल.