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साहित्य-परिचय और समालोचन
मूल और भाष्यकी गाथाओंको भिन्न भिन यइपोंमें साथ संवाभाव प्रकट है, और इसके लिये वे विशेष दिया गया है. विषय सूची अलग देनेके अतिरिक्त धन्यवादके पात्र हैं। ग्रंथकी दूसरी एक हजार प्रतियाँ ग्रंथमं जहाँपर जो विषय प्रारम्भ होता है वहॉपर उस प्रकाशिका नानी व्हेनकी ओरसे बिना मूल्य वितरित विषयकी सूचना सुन्दर बारीक यइपमें हाशियेकी तरफ हुई है। जिनका चित्र सहित परिचय भी साथमें दिया दे दी है, इससे अन्य बहुत उपयोगी होगया है। छपाई- हुश्रा है।। मफाई सुन्दर है और कागज भी अच्छा लगा है। ग्रंथ लेखकने यह ग्रंथ अपने गुरु आचार्य शान्तिसागरश्रात्मशुदिमें दत्तचित्त साध-साध्वियोंके अतिरिक्त को समर्पित किया है। दोनोंके अलग अलग फोटो पुरानी बातोंका अनुसधान करनेवाले विद्वानों के संग्रह चित्र भी ग्रंथमें लगे हुए हैं और पं० वर्धमान पाव. पाग्य है।
नाथ शास्त्रीने अपने 'श्राद्यवक्तव्य' में दोनोंका कुछ (२) निजात्मशुद्धिभावना और मोक्षमार्गप्रदीप परिचय भी दिया है । परन्तु ग्रंथके साथमें कोई विषय. (हिन्दी अनुवाद सहित )-मूल लेखक, मुनि कुंथु- सूची नहीं है, जिसका होना ज़रूरी था । मागर जी । -अनुवादक, प० नानूलाल शास्त्री, जयपुर (३) धर्मवीर सुदर्शन-लेखक, मुनि श्री अमर-~-प्रकाशिका, श्री संघवी नानीन्हेन मितवाडा निवासी। चन्द । प्रकाशक, वीर पुस्तकालय, लोहा मंडी, आगरा पृष्ठ मंख्या, सब मिलाकर १४४ । मूल्य, स्वाध्याय | पृष्ठसंख्या, सब मिला कर ११२ । मूल्य, पांच पाना । मिलनेका पता, प. वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री, सेठ सदर्शनकी कथा जैन समाजमें खब प्रसिद्ध 'कल्याण' प्रेस, शालापुर ।
है। यह उसीका नई तर्ज के नये हिन्दी पद्योंमें प्रस्फुटित ये दोनों ग्रन्थ एक साथ निबद्ध है-पहलेमें ६४ और विशद रूप है। इसमें धर्मवीर सेठ सदर्शनके और दुमरेम १६४ संस्कृत पद्य हैं तथा पिछले ग्रन्थके कथानकका श्रोजस्वी भापामें बड़ा ही सुन्दर जीतामाथन ३८ पद्योकी एक प्रशस्ति भी लगी हुई है, जागता चित्र खीचा गया है। पुस्तक इतनी रोचक है जिमम लेखकने अपने गुरु श्राचार्य शान्तिभागरके कि उसे पढ़ना प्रारम्भ करके छोड़नेको मन नहीं होता वशादिकका कार्तन किया है अपनी दुमरी रचनाओंका वह पशु बल पर मैनिक बलको विजयका अच्छा पाठ उल्लेख किया है और इस ग्रंथ का रचना-समय ज्येष्ठ- पढाती है। पद-पद पर नैतिक शिक्षाओं, अनीतिकी कृष्ण १३ वीर निर्वाण मंवत् २४६२ दिया है। माथ अवहेलनात्रों और कर्तव्य-बोधकी बातोंसे उमका माग ही, अनुवादक और अनुवादके ममयका भी उल्लेख कलवर भरा हुआ है। साथ ही, कविता मरल, सुबोध कर दिया है। पहले ग्रंयका रचना-मनय उमके अन्तिम और वर्णन-शैली चित्ताकर्षक है। लेखक महोदय पद्यों में फाल्गुन शुक्ला ३ वीर नि० मं० २.६२ दिया इस जीवनीक लिखनेम अच्छे सफल हुए जान पड़ते हैं। हुअा है।
प्राचीन पद्धतिके कथानकोंको नवीन पद्धतिम लिम्बनेका दोनों प्रश अपने नामानुकुल विषयका प्रतिपादन उनका यह प्रथम प्रयाम अभिनन्दनीय है। उन्हें इसके करनेवाले, रचना-मौन्दर्यको लिये हुए, पढ़ने तथा लिम्बनेकी प्रेरणा अपने मित्र श्री मदनमुनि जीमे प्राम मग्रह करने के योग है। अनुवाद भी प्रायः अच्छा ही हुई थी। प्रेग्णाका प्रमंग भी एक स्थान पर होलीके हश्रा है, और उसके विषय मे अधिक लिखनेकी कुछ भारी हल्लाइमें भदाचारका हत्याकाण्ड और भारतीय ज़रूरत भी मालूम नहीं होनी, जबकि मूलकारने स्वय सभ्यताका वन देखकर उपस्थित हुश्रा था, जिसका उसे स्वीकार किया है और अपनी प्रशस्ति तकमें स्थान 'आत्म निवेदन' में उल्लेख है, और उमसे यह भी दिया है। अनुवादक महाशयने इस ग्रन्थकी एक हजार मालम होता है कि इस चरित्र ग्रंथका निर्माण राधेप्रतियाँ अग्नी पोरम बिना मूल्य वितरण भी की है, श्याम-रामायण के ढग पर भारतीय गायोंमें सदाचारका जिससे उनका ग्रंथके प्रति विशेष अनुराग होने के साथ महत्व समझाने-बुझाने के उद्देश्यमे हुश्रा है ।