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________________ ६८२ अनेकान्त इस प्रकार उल्लेख देखने में भाता है, यह बात खास ध्यान में रखने योग्य है । हम इस ग्रन्थको यदि इनकी प्राथमिक कृतिकं रूपमें मानले, तो श्राचार्यश्रीने अपनी १५ वर्ष लगभगकी किशोर अवस्थामें प्रन्थरचना की शुरुआत की होगी ओर - तेहि नाराबले बराहमिहरवंतरस्स दुचिट्ठ माऊणसिरपास सामिणो 'उवसग्गहर' थवणं काऊरासचकर पेसिय - सघति० - सम्यक्त्वस ० इस वर्णन की तरफ लक्ष्य खींचने से वराह मिहरके अवसान ( ई० सं० ५८५ ) के चार पाँच वर्ष बाद तक आचार्यश्री जीवित रहे होंगे, ऐमा मन तो इनको कुल आयु १२५ वर्ष से ऊपर और १५० के बीच की निर्धारित की जा सकती है । परन्तु इतनी लम्बी आयु के लिये शंकाको ठीक स्थान मिलता है। वराहमिहरने ई० स०५०५ से गणितका काम करना प्रारम्भ किया और वह ई० स० ५८७ तक जीवित था, उसने लगभग १५-२० वर्षकी अवस्था में यदि कार्य प्रारम्भ किया हो तो उसकी उम्र भी १०० वर्ष से ऊपर की कल्पित की जा सकती है । श्री भद्रबाहु उससे बीस तीस वर्ष बड़े हों तो उपर्युक्त आयुका मेल बराबर बैठ जाता है । परन्तु प्रबन्धचिन्तामणिकार ( मेरुतुंगाचार्य ) इनको [आश्विन, वीर निर्वाण सं० २४६६ लघुबन्धुका विशेषण देता है । इससे उम्र सम्बन्धी शंका फिर विशेष मजबूत हो जाती है। विकमरज्जरम्भा पुरन सिरिवीरनिव्वुइ मणिया । सुन मुणिवेद्य (४७०) जुत्तं विक्कमकालाउ जिराकानं विक्कमरज्जाणतर तेरसबासेसु ( १३ ) वच्चरपती । सिरवी मुक्खो सा चउसयतेसीइं (४८३) वासा उ जिरा मुक्खा च वरिसे (४) पण मरओ दूसम उयसजाओ अरया चसय गुणसी (४७६) वासेहि विक्रमं वासं ॥ वीर निर्माण संवत् ९८० ( वाचनांतर ९९३ ) वर्षमे देवगिरिण क्षमा श्रमणन पुस्तक लिखवाने की प्रवृत्ति प्रारम्भ की, उस समय उसने यह स्थविरावली ( पट्टावली ) बनाई है, ऐसा भी मानने आता है । परन्तु यह मान्यता दोष रहित नहीं है। दूसरेके किये हुए ग्रन्थ में दूसरे के प्रकरण वगैरह को जोड़ने में उस ग्रन्थकी महत्ताको हानि पहुँचती है, ऐमा कार्य शिष्ट पुरुष कभी भी नहीं करते । थोड़े समय के लिये हम स्थविरावलिको देवर्द्धिगरणक्षमाश्रमण कृत मान भी लें तो फिर उसके अन्त में दी हुई - सुत्तथरयणभरिये खमदममद्दवगुणेहि संपुरणे । देवड्डि खमासमणे कासवगुते पणिवयामि || इस गाथाकी क्या दशा होवे ? कोई भी विद्वान स्वयं अपने लिये ऐसे शब्दों को क्या उच्चारण करेगा ? इसलिये यह गाथा जरूर अन्यकृत माननी पड़ेगी। श्रीभद्रबाहुनामानं जैनाचार्य कनीयांसं सोदरम् । - प्रबन्धचि ० सर्ग ५ * एतत्सूत्रं श्रीदेवर्द्धिगणिक्षमाश्रमणैः प्रक्षिप्तमिति क्वचित् पर्यषणाकल्याव चूर्णी, तदभिमात्रेण श्रीवीरनिर्वाणात नवशताशीतिवर्षातिक्रमे सिद्धान्तं पुस्तके न्यसद्भिः श्रीदेवर्द्धिगणिक्षमाश्रमणैः श्रीपर्यषएकल्पस्यापि वाचना पुस्तके न्यस्ता तदानीं पुस्तक लिखन कालज्ञापनायेतत् सूत्रं लिखितमिति । - कल्पदीपिका ( सं० १६७७) जयविजय
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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